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मछली, ऐम्फिबिया, सरीसृप, पक्षी और स्तनधारी की त्वचा का तुलनात्मक वर्णन एवं उनके कार्य (Comparative description of the skin of fish, amphibians, reptiles, birds and mammals and their functions)

मछली की त्वचा (Skin of fishes)

मछली जलीय वातावरण में रहती है। अतः इनकी त्वचा जलीय वातावरण के अनुकूल पायी जाती है। मछली की त्वचा में दो स्तर एपिडर्मिस (Epidermis ) एवं डर्मिस (Dermis) होते हैं। एपिडर्मिस में स्ट्रैटम कॉर्नियम (Stratum corneum) का अभाव होता है। एपिडर्मिस में म्यूकस एवं गोब्लेट ग्रंथियाँ (Mucous and goblet glands) पायी जाती हैं। ये त्वचा में घर्षण कम करते हैं तथा बैक्टीरिया एवं कवकों से रक्षा करते हैं। डर्मिस की रचना संयोजी ऊतक एवं अरेखित पेशियों से होती है, जिनके बीच-बीच में रक्त वाहिनियाँ, तंत्रिकाएँ, कोलेजन तंतु आदि फैले रहते हैं। डर्मिस में स्केल्स (Scales) धंसे हुए रहते हैं। मछलियों की त्वचा में रंगदीप्ति कोशिकाएँ होती हैं। साथ ही वर्णक (Pigments) भी पाये जाते हैं।ऐम्फिबिया त्वचा (Skin of Amphibia)

अधिकांश ऍम्फिबियन जन्तुओं की त्वचा कोमल, नम, चिपचिपी एवं शरीर से डीले रूप में चिपकी रहती है। ऐम्फिबियन त्वचा भी दो स्तरों की बनी होती है. जिन्हें एपिडर्मिस एवं डर्मिस कहते हैं एपिडर्मिस अनेक स्तरों वाली होती हैं, जिसमें सबसे बाहरी स्तर कॉर्नियल स्तर (Corneal layer) होती है, जिसकी कोशिकाएँ किरैटिनयुक्त एवं मृत होती हैं।एपिडर्मिस की सबसे भीतरी स्तर स्ट्रैटम जर्मिनेटिवम (Stratum germinativum) कहलाती है। एपिडर्मिस में म्यूकस एवं विष ग्रन्थियाँ (Mucous and poison glands) पाई जाती हैं, डर्मिस पतली होती है और इसमें दो स्वर स्ट्रैटम स्पांजिओसम (Stratum spongiosum) एवं स्ट्रैटम कॉम्पे- क्टम (Stratum compactum) होती है। इसमें संयोजी ऊतक होती है, जिसमें रक्त वाहिनियाँ, लिम्फ, तंत्रिकाएँ एवं क्रोमैटोफोर भी पाये जाते हैं।सरीसृप की त्वचा (Skin of Rep tiles)

इनकी त्वचा में त्वचीय ग्रन्थियों का पूर्णतः अभाव होता है। त्वचा शुष्क और हॉन एपिडर्मिस स्केलयुक्त होती है। इसके अलावा त्वचा में बोनी प्लेट, स्कूट्स पाये जाते हैं।पक्षी की त्वचा (Skin of Birds)

इनकी त्वचा ढीली, सूखी पतली तथा ग्रन्थि रहित होती है, केवल एक यूरोपाइजियम ग्रन्थि पूँछ के आधार पर बनी होती है। इसमें से परों के प्रसाधन के लिए तेल का त्रावण होता है। एपिडर्मिस नाजुक होती है, केवल पैर पर और आस-पास यह मोटी होती है, जहाँ इसमें एपिडर्मिस शल्क बनी होती है। शेष शरीर पर एपिडर्मिस पिच्छों का एक संरक्षी आवरण होती है। एपिडर्मिस की किरैटिन उत्पादक क्षमताएँ पिच्छों और शल्कों के निर्माण के लिए प्रयुक्त होती है, डर्मिस पतली होती है और इसमें परस्पर जाल बनाते हुए योजी ऊतक, पिच्छों को गति प्रदान करने वाले प्रचुर पेशी तन्तु रक्त वाहिकाएँ और तन्त्रिकाएँ आदि होती हैं। डर्मिस में एक ऊपरी तथा एक निचली परत होती है, जिसके बीच में एक वाहिकीय परत होती है। डर्मिस में वसा कोशिकाएँ भी होती हैं।पक्षियों में वर्णकार नहीं पाये जाते हैं। वर्णक केवल पिच्छों और शल्कों में पाया जाता है। पक्षियों में रंग व्यवस्था चटकीली होती है, जिनका उद्देश्य सुरक्षा, पहचान आदि होता है। रंग अंशतः वर्णकों से और अंशत: पिच्छों की सतह से परावर्तन और अपवर्तन से पैदा होते हैं।स्तनी की त्वचा (Skin of Mammals) 

स्तनियों में त्वचा लचीली और जलरोधी होती है। यह अन्य प्राणियों की अपेक्षा ज्यादा मोटी होती है। विशेष रूप से डर्मिस बहुत मोटी और कड़ी होती है, उसी से चमड़ा बनता है। एपिडर्मिस भी स्तानियों में सबसे मोटी होती है। इसकी बाहरी परत को स्ट्रैटम कॉर्नियम कहते हैं, जिसमें एक कठोर प्रोटीन किरैटिन पाया जाता है। इसकी कोशिकाओं के केन्द्रक समाप्त हो जाते हैं, लेकिन कोशिकाएँ जीवित होती हैं। इसमें हॉर्मोन का स्रावण होता है, जिनमें से एक मैल्पिधी परत की माइटोसिस क्रियाओं का दमन करता है।स्ट्रैटम कॉर्नियम के नीचे एक स्वच्छ स्ट्रैटम ल्यूसिडम की परत होती है, इसमें इलीडीन नामक तत्व पाया जाता है। इस स्तर के नीचे स्ट्रैटम ग्रेन्यूलोसम होता है, जिसमें केरैटोहायलीन नामक तत्व पाया जाता है। इलीडीन तथा किरैटोहायलीन, किरैटिन बनते समय बीच के बनने वाले पदार्थ हैं। इस स्तर के नीचे स्ट्रैटम स्पाइनोसम होती है, जिसकी कोशिकाएँ कंटकीय अन्तराकोशिकीय सेतुओं द्वारा जुड़ी होती हैं, अन्त में एक जननिक स्तर होता है, जिसे स्ट्रैटम जर्मिनेटिवम अथवा मैल्पिधी परत कहते हैं, जो अधारक झिल्ली पर टिकी रहती हैं। इस परव से लगातार नई कोशिकाएँ बनती रहती हैं, जो सतह की ओर चली जाती हैं और चपटी तथा किरैटिनाइज्ड हो जाती हैं। अन्त में स्ट्रैटम कॉर्नियम की सबसे ऊपरी परत पर क्रमशः गिरती जाती हैं। यह निर्मोचन क्रिया अंशतः धायरॉइड ग्रन्थि के अभाव में होती है। स्तनियों में मेलेनोब्लास्ट कोशिकाएँ होती हैं, जो एपिडर्मिस और डर्मिस के बीच पड़ी होती हैं, इसमें वर्णक होता है।एपिडर्मिस से बाल स्वेद ग्रन्थियों, सिबेसियस ग्रन्थियाँ और स्तन ग्रंथियाँ बनती है। बालों का एक बाह्यत्वचीय आवरण होता है। बालों के शैफ्ट त्वचा के ऊपर की ओर निकले होते हैं और उनको जड़ें रोम पुटकों में भैंसी रहती हैं, जिनमें एक विशाखित सिबेसियस ग्रन्थि खुलती है। बाल अपने बीच में हवा रोक लेते हैं तथा तापरोधी परत बना लेते हैं। सिबेसियस ग्रन्थियों में से एक तैलीय पदार्थ निकलता है, जो बाल को लचीला बनाये रखता है। यह बाल को भींगने से भी बचाता है तथा त्वचा को नरम बनाये रखने में मदद करता है। डर्मिस में कुण्डलित स्वेद ग्रन्थियाँ उपस्थित होती हैं, ये नलियों के समान होती हैं, जिनका ऊपरी सिरा सतह पर खुलवा है। इनसे चयापचयी अपशिष्ट लवण तथा पसीना बाहर निकलता है। पसीना ताप नियन्त्रण में मदद करता है। स्तन ग्रन्थियाँ रूपान्तरित सिबेसियस ग्रन्थियाँ होती हैं, परन्तु मोनोट्रीम समूह के स्तनियों में ये रूपान्तरित स्वे ग्रन्थियाँ होती हैं, इसमें शिशुओं के पोषण हेतु मादाओं में दूध का निर्माण होता है।