चोरी और प्रायश्चित कहानी का सारांश
उन लोगो को अपनी पराधीनता खलनी लगी और दोनों ने आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया | अब समस्या यह थी कि आत्महत्या कैसे की जाए | उन लोगो ने किसी से सूना था कि धतूरे के बीज खाने से मृत्यु होती है तो वे दोनों जंगल जाकर बीज ले आये पर जहर खाने की हिम्मत नही हुई | फिर भी डो चार बीज खाए और ज्यादा खाने की हिम्मत नही हुई | दोनों मौत से डरने लगे और यह निश्चय किया कि क्यों न पराधीनता ही सह ली जाए और आत्महत्या की बात भूल गए |
गांधी जी ने यह माना कि यह आदात गंदी और हानिकारक है | गांधी जी को बीड़ी पीने की इतनी लत लग गयी कि बीड़ी खरीदने के चक्कर में उनके सर पर लगभग पच्चीस रुपये का कर्ज हो गया | इस कर्ज को अदा करने के लिए उसने दूसरी चोरी की जिसे वे अधिक गंभीर मानते है | दूसरी चोरी के समय गांधी जी की उम्र पंद्रह साल की रही होगी | यह चोरी अपने बड़े भाई के सोने के कड़े के टुकड़े की थी | चोरी करके कर्ज तो अदा कर दिया पर गांधी जी के लिए यह बात असहनीय हो गयी | उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि आगे कभी भी चोरी नही करूंगा | उनके अंतरआत्मा से आवाज आने लगी कि पिताजी के सामने अपना दोष स्वीकार कर लेना चाहिए पर उसकी जीभ न खुली |
आखिर में गांधीजी ने तय कर लिया कि वे पिता जी को चिटठी लिखकर अपना दोष स्वीकार कर लेंगे तथा माफी मांग लेंगे | गांधी जी ने चिटठी में सारा दोष स्वीकार करके सजा मांगी और भविष्य में ऐसा अपराध न करने की प्रतिज्ञा की | उसके बाद कांपते हाथो से चिटठी पिताजी के हाथ में दे दी | पिताजी ने चिटठी पढी, उनके आँखों से मोटी की बूंद टपक रही थी | गांधीजी को आत्म संतुष्टि हुई कि उन्होंने चोरी का अपराध स्वीकार कर सच्चा प्रायश्चित किया | गांधी जी ने अपनी गलती को अंतर्मन से स्वीकार कर एक आदर्श नैतिक मूल्यों की स्थापना की |
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