स्वास्थ्य एवं बायोटेक्नोलॉजी

बायोटेक्नोलॉजी का उपयोग स्वास्थ्य रक्षा के क्षेत्र में बहुतायत से किया जा रहा है। इस कार्य के लिए जन्तु कोशिका कल्चरों तथा DNA रीकॉम्बिनेण्ट तकनीक (DNA recombinent technology) का उपयोग किया जाता है, जिसके फलस्वरूप कई मानव उपयोगी उत्पाद प्राप्त किये जा रहे हैं। जन्तु कोशिका कल्वर से निम्नलिखित उत्पाद प्राप्त होते हैं -

(i) वायरस वैक्सीन (Virus vaccines) -
इसके अन्तर्गत, हीपेटाइटिस, पोलियो, रेबीज एवं खुरपा जैसी बीमारियों से बचाव के टीके तैयार किये जाते हैं।

(ii) कोशिकीय जैव-रसायन (Cellular biochemicals) -
इसके अन्तर्गत ऐंजियोजेनिक कारक, B एवं y -इन्टरफेरॉन (Band y interferon) एवं -इन्टरफेरॉन तैयार किये जाते हैं।

(iii) प्रतिरक्षा नियामक जैव-रसायन (Immuno-regulatory biochemicals) -
इसमें इन्टरल्यूकिन-2 (Interleukin-2) का उत्पादन होता है।

(iv) एन्जाइम (Enzymes) - कई तरह के एन्जाइम का उत्पादन होता है।

(v) हॉर्मोन्स (Hormons) -
इसमें ल्यूटिनाइजिंग हॉर्मोन्स, कोरियोनिक हॉर्मोन्स, वृद्धि हॉर्मोन एवं एण्टिवॉडीज का सर्वाधिक उत्पादन किया जाता है।

रिकॉम्बिनेंट DNA टेक्नोलॉजी द्वारा कुछ निम्नलिखित महत्वपूर्ण उत्पाद प्राप्त किये जाते हैं -


(i) चिकित्सा के लिए उपयोग हो रहे उत्पाद-मानव वृद्धि हॉर्मोन, ऊतक प्लाज्मिनोजेन सक्रियक, एरिथ्रोएटिन एवं रुधिर स्कंदन कारक उत्पाद.

(ii) विकास की अन्तिम अवस्थाओं में प्रोनॉम्बिन, VII रुधिर कारक, इंटरल्यूकिन-2, हीपेटाइटिस बी एवं इंटरफेरॉन के उत्पादन की तैयारी है।

इन तरीकों का सबसे अधिक उपयोग मानव स्वास्थ्य की रक्षा में हुआ है। मानव स्वास्थ्य के क्षेत्र में है बायोटेक्नोलॉजिकल तकनीकों के योगदानों का निम्न शीर्षकों के अन्तर्गत वर्णन किया जा सकता है -

(1) रोगों से प्रतिरक्षा के लिए टीकों का विकास (Development of Vaccines for immunity) - जन्तुओं से ऐण्टिजन का पृथक्करण कर टीकों का उत्पादन किया जा सकता है। टीकों को तीन प्रकार से उत्पादित किया जा सकता है—(i) मोनोक्लोनल ऐण्टिबॉडी द्वारा शुद्ध ऐण्टिजन प्राप्त करना, (ii) क्लोन किये गए जीन की सहायता से ऐण्टिजन का संश्लेषण करना, (iii) संश्लेषित पेप्टाइड के रूप में टीकों का निर्माण। इन तीनों विधियों से विभिन्न रोगों के टीके या तो बना लिये गए हैं या निकट भविष्य में बनने की सम्भावना है। उदाहरणार्थ रेबीज वाइरस (Rabies virus), हीपेटाइटिस B वाइरस (Hepatitis B virus), विब्रियो कोलेरी (Vibrio cholerae) जिससे हैजा (कॉलेरा) रोग होता है। प्लाज्मोडियम फैल्सीपेरम वर्षों में, संक्रमित रोगियों से प्राप्त HBV DNA को सफलतापूर्वक क्लोन किया गया है।

(2) रोगों का निदान (Diagnosis of diseases) -
मोनोक्लोनल ऐण्टिबॉडीज तथा DNA प्रोब द्वारा, रोगों को पहचानने में बहुत कम समय लगता है। रूढ़ विधियों (Conventional methods) द्वारा रोगों को पहचानने में जहाँ कई सप्ताह लग जाते थे। वहीं DNA प्रोब तथा मोनोक्लोनल एण्टिवॉडीज जैसे प्रभावी तथा संवेदनशील यन्त्रों द्वारा रोगों को क्रमशः कुछ मिनट व कुछ घण्टों में पहचाना जा सकता है। हीपेटाइटिस B वाइरस व मलेरिया रोग के लिए DNA प्रोब बना लिये गए हैं। DNA प्रोब, DNA के ऐसे छोटे-छोटे खण्ड होते हैं, जो किसी भी जैविक या अजैविक तन्त्र में किसी भी बाहरी DNA की उपस्थिति को ज्ञात कर लेते हैं।

इनके द्वारा संक्रामक रोगों का निदान, भोज्य पदार्थों में संदूषित पदार्थ की पहचान आदि की जाती है। जीन लाइब्रेरियों सेc DNA खण्ड को पृथक् कर उनका प्रयोग DNA प्रोब की तरह किया जा सकता है। मलेरिया रोग के निदान के लिए DNA प्रोव एस्ट्रा रिसर्च केन्द्र बैंगलोर में बना लिया गया है।

(3) रोगों का उपचार (Treatment of diseases)
- जैव प्रौद्योगिकी द्वारा व्यापारिक स्तर पर कई औषधियों का उत्पादन हो रहा है, जिनमें सोमेटोस्टैटिन (Somatostatin), इन्सुलिन (Insulin), मानव वृद्धि हॉर्मोन (Human growth hormone-HGH) तथा वाइरसों के विरुद्ध इण्टरफेरॉन (Interferon) प्रमुख हैं। जैव-प्रौद्योगिकी द्वारा इनका व्यापारिक स्तर पर निर्माण बहुत सस्ता पड़ता है। सबसे पहला हॉर्मोन सोमेटोस्टैटिन है जिसे आनुवंशिक अभियान्त्रिकी द्वारा संश्लेषित किया गया था। यह एक मस्तिष्क हॉर्मोन (Brain hormone) है, जो हाइपोथैलेमस (Hypothlamus) से उत्पन्न होता है और पिट्यूटरी ग्रन्थि (Pituitary gland) के प्रकार्य का नियमन करता है। यह HGH और इन्सुलिन के स्रावण को बाधित (Inhibit) करता है। अत: इसका उपयोग डायबिटीज के उपचार पैन्क्रिएटाइटिस (Pancreatitis) के उपचार में किया जाता है।

उपर्युक्त औषधियों के अतिरिक्त जीन थेरेपी (Gene therapy) द्वारा भी रोग का उपचार किया जा सकता है। जीन थेरेपी के अन्तर्गत दोषी जीन का प्रतिस्थापन एक सामान्य तथा स्वस्थ जीन द्वारा किया जा सकता है। किन्तु इस विधि द्वारा उपचार अभी सम्भव नहीं हो पाया है। जीन थेरैपी का प्रयोग दो स्तरों पर किया जा सकता है।

(a) रोगी थेरेपी (Patient therapy) - इसमें प्रभावित ऊतक में स्वस्थ जीनों का प्रवेश करा दिया जाता है।

(b) भ्रूण थेरेपी (Embryo therapy) - इसमें दोषी जीन की उपस्थिति का पता लग जाने पर, जायगोट बनने के बाद भ्रूण की आनुवंशिक संरचना को ही बदला जाता है।

विकसित देशों में रोगी बच्चे के होने की सम्भावना यदि हो तो ऐण्टिनेटल निदान (Antinatel diagnosis) द्वारा बीमारी की पहचान कर ली जाती है। जागरूक माँ-बाप (Parents) बच्चे के जन्म से पहले आनुवंशिक परामर्श प्राप्त करते हैं। ऐण्टिनेटल निदान करने के लिए हाइपोडर्मल सुई (Hypodermal needle) की सहायता से कुछ ऐम्नियोटिक द्रव (Amniotic fluid) गर्भ से निकाला जाता है। इस द्रव में उपलब्ध भ्रूण (Fetus) की कोशिकाओं का संवर्धन व परीक्षण किया जाता है। परीक्षण द्वारा भ्रूण के कैरियोटाइप (Karyotype) का अध्ययन किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप गर्भावस्था में ही रोग निदान हो जाता है।

(4) विधि विज्ञान में DNA फिंगरप्रिंटिंग (DNA fingerprinting in forensic science)- 
इस विधि का विकास एलेक जेफ्री (Alec Jeffreys) तथा उसके साथियों ने इंग्लैण्ड में किया है। भारत के हैदराबाद स्थित कोशिका तथा आण्विक जैविकी केन्द्र (Centre of Cell and Molecular Biology) में DNA फिंगर • प्रिंटिंग की एक और उत्तम विधि विकसित की गई है। इन विधियों की सहायता से रक्त या वीर्य (Sperm) के धब्बों आदि के DNA से अपराधी की पहचान की जा सकती है क्योंकि सभी मनुष्यों के DNA अलग-अलग होते हैं, अत: यह विधि बलात्कारियों, कातिल आदि पहचानने में महत्वपूर्ण सिद्ध होंगे।