प्राकृतिक संसाधन (Natural resources)

आधुनिक मानव ने पृथ्वी के रूप को परिवर्तित करने में बहुत कुछ कार्य किया है। मानव अपनी सभ्यता एवं आहार शृंखलाओं (Food chain) को स्थापित करने के लिए प्राकृतिक पारिस्थितिक तन्त्रों (Natural ecological systems) को परिवर्तित कर रहा है। औद्योगीकरण (Industrilization), परिवहन (Transportation), यान्त्रिकीय कृषि (Mechanised agriculture), जन स्वास्थ्य औषधि (Medicines) के क्षेत्र में उन्नति के द्वारा मनुष्य ने रहन-सहन एवं सभ्यता के क्षेत्र में अत्यधिक उन्नति की है। यह उन्नति पूर्व में नहीं देखी गई, जो कि मनुष्य को निश्चित रूप से कुछ मूल्य चुकाने के पश्चात् प्राप्त हुई।

इन सब साधनों एवं उन्नति को प्राप्त करने में मनुष्य ने प्रकृति के सन्तुलित पारिस्थितिक सन्तुलन को परिवर्तित कर अनेक समस्याएँ उत्पन्न कीं। प्राकृतिक साधनों के अधिक उपभोग या दोहन से अनेक जातियों में विलुप्तीकरण (Extinction) की समस्याएँ उत्पन्न हुई, मृदा अपरदन (Soil erosion) के द्वारा बाढ़ (floods) अधिक आती है, वनों को साफ कर फैक्ट्रीज (Factories), बाँध (Dames) एवं रेलपथ (Railway track) को बनाने से वन्य जीवन (Wild life) को अत्यधिक हानि हुई है। उद्योगों का त्याज्य पदार्थ (Wastes products) भी वन्य जीवन के लिए हानिकारक है। पानी को प्रदूषित करते हैं और स्वच्छ जलीय एवं समुद्री प्राणियों को नष्ट करते हैं। मानव के द्वारा इन परिवर्तनों के अधिक गम्भीर परिणाम सामने आये इन परिणामों को 'पारिस्थितिक विच्छट' (Ecological blacklashes) कहते हैं। पारिस्थितिक विच्छ वातावरण (Environment) रूपान्तरण का वह हानिकारक परिणाम होता है, जो अनुमानित लाभों को नहीं काटता है, इसके विपरीत अनेक समस्याएँ उत्पन्न करता है। प्राकृतिक पारिस्थितिक विच्छटों को दूर करने के लिए प्राकृतिक साधनों का संरक्षण आवश्यक है।

पारिस्थितिक सिद्धांतों के द्वारा प्राकृतिक साधन एवं वातावरण का संरक्षण, पौधों, प्राणियों एवं बढ़ती हुई जनसंख्या को निरन्तर प्राप्त करने के लिए बहुत आवश्यक है। मृदा अपरदन, वनों की कटाई, बाँधों के बन जाने के कारण, अनियमित संख्या में प्राणियों का नरसंहार, अनियमित विधि के द्वारा खेतों का निर्माण, उद्योगों का व्यर्थ त्याज्य पदार्थ, जलीय प्रदूषण में वृद्धि कर रहा है। मनुष्य युद्ध स्तर पर सन्तुलन को बनाये रखने के लिये प्राकृतिक साधनों का संरक्षण कर रहा है। संरक्षण का आशय जमाखोरी नहीं होता। संरक्षण के दो उद्देश्य होते हैं—-(i) नवीनीकरण (Renewal) एवं एकत्रीकरण (Harvesting) के सामान्य सन्तुलित चक्र (Balanced cycle) को स्थापित कर, लाभकारी प्राणियों (Animals), पौधों (Plants) एवं अन्य पदार्थों की पैदावार सतत् बनाए रखना, (ii) सुन्दरता (Beautification), मनोरंजन (Entertainment) एवं अच्छे उपयोगी वातावरण का परीक्षण करना। अतः मनुष्य को जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण रखना होगा और योजना का पारिस्थितिक (Eco logically) दृष्टि से परीक्षण एवं मूल्यांकन किया जाए, जिससे कि विच्छटों (Blacklashes) के कारण समस्याएँ उत्पन्न न हों अन्यथा उन समस्याओं को अन्त में सुलझाना कठिन होगा।

प्राकृतिक साधनों को निम्न प्रकार से वर्गीकृत (Classified) किया गया है -

(अ) अकार्बनिक संसाधन (Inorganic resources) - इसके अन्तर्गत जल, वायु, खनिज पदार्थ, (Minerals), धातु-अयस्क (Ores) एवं पत्थर (Stones) आते हैं।

(ब) कार्बनिक संसाधन (Organic resources) - इसके अन्तर्गत सभी सजीव सूक्ष्मजीव (Mi crobes), पौधे (Plants), प्राणी (Animals) एवं उनके उत्पाद (Products) आते हैं। उत्पादों के अन्तर्गत प्राकृतिक गैस (Natural gases), कोयला (Coal) भोजन (Food) वन (Forest) एवं उनसे प्राप्त लकड़ी आते हैं।


इन साधनों का मनुष्य निरन्तर उपयोग कर रहा है और करता रहेगा। ऐसे साधन जिनका उपयोग के पश्चात् समाप्त होने की सम्भावना नहीं है। इन साधनों को अनन्त (Infinitive) साधन कहते हैं। इनके अतिरिक्त ऐसे साधन, जिनका उपयोग होने के पश्चात् पुनः नवीनीकरण या स्थापन सम्भव नहीं है, अनवीनीकरण (Unrenewal) कहलाते हैं। इनके अन्तर्गत जीवाश्म (Fossils) कोयला (Coal), तेल (Oil), प्राकृतिक गैस एवं अनेक धातु अयस्क (Ores) आते हैं।

1. खनिज संसाधन (Mineral resource) - मानव प्राचीन समय से खनिज पदार्थों का उपयोग करता आ रहा है। वर्तमान में जनसंख्या की निरंतर वृद्धि के कारण खनिज पदार्थों का उपयोग करने में वृद्धि हुई है। अतः मनुष्य ने खनिज साधनों के संरक्षण पर अब अधिक ध्यान देना प्रारंभ किया है। उपयोगी प्राकृतिक साधन जैसे कि कोयला, तेल, प्राकृतिक गैस, मिट्टी, रेत, नाइट्रेट्स (Nitrates), फॉस्फेट्स (Phosphates) एवं कार्बोनेट्स (Corbonates), जस्ता (Zinc) एवं सीसा (Lead) का संरक्षण (Conservation) एवं दोहन (Exploitation) पर रोक लगाना प्रारम्भ कर दिया है। इन पदार्थों को विलुप्त होने से बचाने के लिए खनिजों के पुनर्चक्रण, प्रतिस्थापन विधियों से मनुष्य को लाभ मिल सकता है। मनुष्य को पूर्ण रूप से सम्पन्न होने के लिए ऊर्जा के अन्य वैकल्पिक स्रोतों का आविष्कार आवश्यक हो गया है।

2. वातावरणीय संरक्षण (Environmental conservation) - जीवन एवं वातावरण पृथक् नहीं किये जा सकते। मनुष्य वातावरण का एक अभिन्न भाग है तथा सतत् चक्र के द्वारा वातावरण से पदार्थों का आदान प्रदान कर रहा है। वर्तमान में तकनीकी ज्ञान, रसायन (Chemistry), जैविकी (Biology) एवं कृषि (Agricul ture) के ज्ञान से मनुष्य वातावरण को परिवर्तित करने की शक्ति रखता है, लेकिन वह अपने को पूर्णत: पृथक् नहीं रख सकता। जैसे-जैसे उसकी जनसंख्या में वृद्धि हो रही है, उसको अधिक स्थान, अधिक साधनों की आवश्यकता है। अत: मानव को उस वातावरण को, जिसमें वह आवास करता है संरक्षित कर एवं उसका उपयोग बुद्धिमानी से करना चाहिए, जिससे कि मनुष्य जाति वातावरण के दुष्परिणामों का सामना न करें।

3. प्राकृतिक साधनों का संरक्षण (Conservation of natural resources) - प्राकृतिक साधनों का अर्थ होता है--मिट्टी (Soil), थल (land), खनिज (Mineral), जल (Water) एवं इनके उत्पादक वनस्पति (Vegetation), वन्य जीवन (Wild life), जो कि मनुष्य के लिए लाभकारी होते हैं तथा आधुनिक उपलब्धियाँ को बनाए रखते हैं। पारिस्थितिक नियमों के द्वारा इन साधनों का संरक्षण पौधों एवं प्राणियों से भोजन एवं अन्य वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए अधिक आवश्यक हो गया है।

(अ) मृदा संरक्षण (Soil conservation) -
पृथ्वी के ऊपर का आवरण मिट्टी है, जो कि 4-5 फीट मोटी है, जिसमें पौधे उग सकते हैं। वनस्पति जीवन सौर ऊर्जा को (Potential) ऊर्जा में संरक्षित करने के लिए अति आवश्यक है। यही एक ऊर्जा प्राप्त करने का स्रोत है। यह जानवरों के लिए भोजन, मनुष्य को भोजन एवं वस्त्र एवं सभी को सुरक्षा प्रदान करते हैं। इसकी लकड़ी अनेक उपयोगों में काम आती है। अतः यह आवश्यक है कि मिट्टी को अपरदन (Erosion) बाढ़ (Floods) से सुरक्षित कर इसकी उपजाऊ स्थिति को बनाए रखा जाए। पौधों का चक्रण (Rotation), हल चलाना एवं खाद का उपयोग मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखने में सहायक होता है। मृदा या मिट्टी का अपरदन, वृक्षारोपण (Plantation) स्थायी चारागाहों या वृक्षों की फसल के लिए उपयोग करने, पुनः वनीकरण (Reforestation), वनों की सुरक्षा एवं अग्नि से सुरक्षा के द्वारा रोका जा सकता है। जल साधनों के नियन्त्रित करने के द्वारा बाढ़ को रोका जा सकता है, जिससे कि मिट्टी का संरक्षण होने के साथ-साथ सूखे (Drought) के समय गम्भीर हानि कम हो जाएगी तथा जल प्रदाय की कमी नहीं रहेगी।

ब) जल संरक्षण (Water conservation) - जल हमारे घरेलू, कृषि एवं उद्योगों के उपयोग के लिए आवश्यक है। अत्यधिक औद्योगीकरण की क्षमता के कारण हमारी पानी को आवश्यकता में अत्यधिक रूप से वृद्धि हुई है। यदि हमारे जल स्रोत प्रदूषित हुए या संग्रहित जल कम हो गया, तो संसार की पूरी सभ्यता का जीवन कठिन है। अत: जल का संरक्षण नियन्त्रित रूप से किया जाय, जिससे कि जल स्रोत में कमी न आये और सूखे की स्थिति न आ सके।

(स) वन संरक्षण (Conservation of forest) - वन (Forest) अनेक जंगली प्राणियों का आवास है। वन मनुष्य को ईंधन (Fuel), कोयला (Coal), फर्नीचर (Furniture) एवं अन्य उपयोगी पदार्थ प्रदान करता है। वन के द्वारा जल हानि को रोका जाता है, जिससे कि मरुस्थल नहीं बन पाते हैं। वन वर्षा में सहायक है तथा मृदा अपरदन (Soil crosion) को रोकते हैं। अतः वनों की व्यवस्था आवश्यक है। भारत सरकार ने सामाजिक वानिकी (Social forestary) के द्वारा वनों के महत्त्व एवं रोपण कार्यक्रम (Plantation) का विस्तार किया। वनों के संरक्षण के साथ-साथ पारिस्थितिकी के सिद्धांतों का पालन आवश्यक है।

(द) वन्य जीवन संरक्षण (Wild life conservation) - वन्य जीवन संरक्षण शिकार उत्पादक भूमि एवं शिकार की फसल से सम्बन्धित होता है। वन्य जीवन राष्ट्रीय सम्पदा है। वन्य प्राणियों के साधनों को पोषण की वृद्धि के लिए निम्न बिन्दुओं पर विचार करना आवश्यक है—–(i) आवास का सुधार (Improvement of habitat), (ii) कृत्रिम संग्रहण (Artificial stocking), (iii) शिकार पर रोक जिससे कि जनन वृक्ष को संरक्षित किया जा सके। वन्य

जीवन संरक्षण के मुख्य उद्देश्य (Main objects of wild life conservation)

1. दुर्लभ प्राणी समूह का शिकार करना प्रतिबन्धित होना चाहिए।
2. दुर्लभ प्राणियों एवं अन्य अपूर्व प्राणियों के लिए आवास एवं रहन-सहन की उत्तम व्यवस्था
3. प्रतिबन्धित क्षेत्र में शिकार करने एवं मछली पकड़ने की मनाही।
4. भारतीय वन जीवन बोर्ड (Indian Board for Wild Life) की स्थापना 1952 में हुई। इस बोर्ड की अनुशंसा पर संरक्षित वन्य प्राणियों के लिए उपयुक्त सुविधाएँ उपलब्ध हैं।
5. भारतीय वन नियम (Indian Forest Act) एवं वन्य पक्षी सुरक्षा अधिनियम, 1912 (Wild Birds Protection Act, 1912) को प्रशासन स्तर पर रखा गया। इसके अन्तर्गत अनेक शिकार के नियम बनाए और भारतीय वन्य जीव बोर्ड के प्रयत्नों से अनेक राष्ट्रीय उद्यान (National parks) एवं राष्ट्रीय अभ्यारण्य (National Sanctuaries) स्थापित की, जिससे कि दोनों स्थानों पर वन्य जीवन को सुरक्षा मिल सके। इन अभ्यारण्यों एवं उद्यानों में उपयुक्त अधिकारी की अनुमति के बिना किसी जानवर या पक्षी को मारना एवं पकड़ना मना है।

(इ) मत्स्य संरक्षण (Conservation of fish) - वर्तमान में मनुष्य यह प्रयास कर रहा है कि नदियों, जलाशयों, झीलों, समुद्रों आदि से मछली का अत्यधिक उत्पादन कर उच्च प्रोटीन युक्त भोजन को प्राप्त किया जा सके। कुपोषण (Malnutrition) की समस्या को हल करने के लिए मनुष्य ने मत्स्य (Fishes) का अत्यधिक मात्रा में शिकार एवं उपयोग कर कुछ मत्स्य जातियों की संख्या अत्यन्त कम कर दी है। तालाबों, झीलों में मछलियों की एक सन्तुलित संख्या को बनाए रखा जाए ताकि मनुष्य को निरन्तर उत्पादन प्राप्त होता रहे। इस प्रक्रम के अन्तर्गत कुछ इस प्रकार की विधियों का उपयोग किया जाता है, जिससे कम होने वाली मछलियों की संख्या बनी रहे।

(ई) चरागाह संरक्षण (Range conservation) - घास को चरने वाले प्राणियों हेतु चरागाह एक आवश्यक स्थान है। संसार के चरागाह क्षेत्रों की नष्ट होती हुई समानताओं के अन्तर्गत जो देखा गया है, उससे स्पष्ट होता है कि मनुष्य का व्यवहार चरागाह सम्पदाओं के प्रति अनुचित है। भारतवर्ष में भी उनकी स्थिति को महत्व नहीं दिया जाता है। कृषि के विस्तार के कारण चरागाह स्थलों में कमी आ रही है। चरागाह पारिस्थितिक तन्त्र की एक क्रमिक अवस्था होती है, इसको अतिचारण (Overgrazing) से सुरक्षित रखना चाहिए। यदि समय पर इन स्थलों की ओर ध्यान नहीं दिया गया तो ये सभी चरागाह वनों में परिवर्तित हो जाएंगे। इस कारण चरागाह के कुछ क्षेत्र (2/3 क्षेत्र) प्रतिवर्ष सुरक्षित रखना चाहिए, जिससे इनका अनुकूलतम उपयोग हो सके। चरागाहों के संरक्षण के लिए सस्यावर्तन (Crop rotation) भी आवश्यक होता है।

चरने वाले प्राणियों (Grazing animals) के लिए चरागाह (Grassland) की वाहन क्षमता (Carrying capacity) के लिए निम्न बातों पर ध्यान देना आवश्यक है -

(i) प्राथमिक उत्पादकता, (ii) कुल उत्पादकता (Net productivity) की यह प्रतिशतता, जो कि प्रतिवर्ष हटाई जा सके एवं चरागाह स्थलों में उत्पादकता बनाये रखी जा सके। चरागाह को संरक्षित करने हेतु चरागाह का इतिहास एवं अन्य मुख्य कारकों का भी विचार करना चाहिए।