शेल्फोर्ड का सहनशीलता का नियम

की.ई. शेल्फोर्ड (V.E. Shelford) ने सन् 1913 में लीबिग के नियम में कुछ आवश्यक तत्व जोड़े। इनके अनुसार, किसी तत्व की अधिकता भी जीवों के लिए सीमाकारी कारक (Limiting factor) हो सकती है -

जैसे -  ताप (Temperature), प्रकाश (Light), जल (Water) आदि। शैल्फोर्ड के अनुसार "एक आवश्यक पदार्थ का अत्यधिक मात्रा में होना भी उतना ही हानिकारक हो सकता है, जितना उसका अत्यधिक कम होना।" शात्पर्य यह है कि किसी भी पदार्थ की कुछ विशेष सीमाओं से कमी या अधिकता जीवों के लिए हानिकारक सिद्ध होती है।

इस नियम के अनुसार, प्रत्येक जीव के लिए प्रत्येक कारक की एक उच्चतम व न्यूनतम सीमा होती है। इन दोनों सीमाओं के बीच का परिसर, सहनशीलता का परिसर (Range of tolerence) कहलाता है।

शेल्फोर्ड के सहनशीलता नियम के निम्नलिखित पाँच सहायक सिद्धान्त हैं -

1. सहनशीलता की क्षमता (Tolerence capacity) -
विभिन्न जीवों की सहनशीलता में भिन्नता होती है। किसी जीव की सहनशीलता की सीमा एक कारक के लिए विस्तृत तथा दूसरे कारक के लिए बहुत कम हो सकती है।

2. वितरण प्रणाली (Distribution pattern) - जिन जीवों की सहनशीलता अधिक होती है, वे ज्यादा बड़े क्षेत्र में फैले होते हैं जबकि जिनकी कम होती है, वे छोटे क्षेत्र में फैले रहते हैं।

3. सहनशीलता की सीमा (Range of tolerence) - जब किसी जाति विशेष के लिए कोई एक वातावरणीय कारक अनुकूल न हो, तो दूसरे कारकों के लिए भी सहनशीलता की क्षमता कम हो जाती है।

4. भौगोलिक स्थितियाँ (Geographical conditions) - प्रकृति में कोई जीव एक कारक विशेष के अनुसार अनुकूलतम परिस्थिति में रहते हैं। ऐसी दशा में दूसरे कारक अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। एक ही जाति के जीवों में एक ही भौतिक कारक के लिए सहनशीलता की सीमाएँ एवं अनुकूलन परिसर बदलते रहते हैं।

5. प्रजनन काल एक चरम अवस्था (Reproductive period as critical phase) - कोई भी वातावरणीय कारक सीमाकारी कारकों की तरह सक्रिय होता है तो जीवधारी का प्रजनन काल उसके जीवन का सर्वाधिक निर्णायक समय होता है। बीजों, अण्डों, भ्रूणों तथा लार्वा आदि के लिए सहनशीलता की सीमाएँ अप्रजननशील जीवों की तुलना में अधिक सीमित होती हैं।

जैसे - पेट्रोमाइजॉन का एमोसीट लार्वा (Ammocoete larva of Petromyzon) - समुद्र के खारे पानी को सहन नहीं कर सकता। अतः प्रजनन काल में पेट्रोमाइजॉन समुद्र से नदियों में चला जाता है। जबकि प्रौढ़ में पेट्रोमाइजॉन समुद्र के खारे पानी को सहन कर सकता है। इस तरह से समुद्र का खारा जल पेट्रोमाइजॉन के लार्वा के लिए सीमाकारी कारक का कार्य करता है।

सीमाकारी कारकों की आधुनिक अवधारणा (Modern concept of limiting factors) - न्यूनतमता का नियम एवं सहनशीलता का नियम दोनों के प्रभाव का जीवों में साथ-साथ अध्ययन करने से सीमाकारी कारकों की अधिक सामान्य एवं आधुनिक अवधारणा बनी है। इससे लाभदायक निष्कर्ष प्राप्त होते हैं। इसके अनुसार वातावरण में जीव निम्नलिखित दो परिस्थितियों द्वारा नियंत्रित रहते हैं -

1. उन पदार्थों की मात्रा एवं परिवर्तनशीलता जिनकी जीवों को सबसे कम आवश्यकता होती है।

2. वातावरण के अन्य घटकों व इनके प्रति स्वयं प्राणियों का सहनशीलता-परिसर ।

सीमाकारी कारकों का महत्व (Importance of limiting factors) - वातावरण के प्रति जीवों के सम्बन्ध बहुत ही महत्वपूर्ण एवं जटिल होते हैं। जीवों के वातावरणीय सम्बन्धों में कई कारकों का सम्मिलित प्रभाव होता है, किन्तु सभी कारक समान महत्व के नहीं होते।

उदाहरणस्वरूप - सभी प्राणियों के लिए ऑक्सीजन आवश्यक है, किन्तु कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही यह सीमाकारी कारक के रूप में कार्य करते हैं। जैसे-किसी तालाब में मछलियाँ प्रदूषण से मर रही हैं तो मृत्यु का कारण ऑक्सीजन की कमी से हो सकती है, परन्तु यदि किसी स्थलीय इकोतंत्र में स्तनधारी या रेप्टाइल मर रहें हों, तो यहाँ मृत्यु का कारक ऑक्सीजन को नहीं कह सकते, क्योंकि वातावरण में ऑक्सीजन की सान्द्रता पर्याप्त मात्रा में होती है।

Zoology me sahanshilta ka niyam