समुदाय (Community)

एक विशेष प्रदेश में स्थित एक ही जाति या घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित जातियों के जीवों की विशिष्ट इकाई को जनसंख्या (Population) कहते हैं, जो किसी विशेष जीवीय प्रदेश में रहने वाले एक ही जाति के जीवों को निरूपित करती है तथा विभिन्न जातियों की छोटी-छोटी इकाइयाँ मिलकर समुदाय ( Community) बनाती हैं।

समुदाय की रचना (Structure of Community)

समुदाय मुख्य रूप से तीन वर्गों का बना होता है, जो इकोसिस्टम की मूलभूत इकाइयाँ हैं।

(1) उत्पादक (Producers) - वे हरे पादप जो प्रकाश-संश्लेषण द्वारा अपने कार्बनिक भोजन का स्वयं निर्माण करते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं 

(i) जड़ा वाल व तरन वाल पादप तथा 
(ii) सूक्ष्म तैरने वाले पादप या पादप प्लवक (Phytoplanktons)।

(2) उपभोक्ता (Consumers) - ये परपोषित जीव हैं, जो उत्पादकों द्वारा निर्मित भोजन का सेवन करते हैं। पोषक विधि के आधार पर ये भी दो प्रकार के होते हैं -

(i) शाकाहारी, प्राथमिक उपभोक्ता जो उपभोक्ता वनस्पति का सेवन करते हैं।
(ii) मांसभक्षी या द्वितीयक उपभोक्ता जो प्राथमिक उपभोक्ताओं का भक्षण करते हैं।


(3) अपघटक (Decomposers) - ये भी समुदाय का एक महत्वपूर्ण घटक है। इनमें मुख्य रूप से जीवाणु एवं कवक सम्मिलित हैं। ये मृतक पेड़-पौधे व जन्तुओं के शरीर पर क्रिया करके जटिल कार्बनिक पदार्थों का सरल पदार्थों में अपघटन करते हैं। ये तत्व उत्पादकों द्वारा पुनः काम में ले लिए जाते हैं।

समुदाय का स्तरण (Community stratification)

सामान्यतः जीवीय समुदाय ऊर्ध्वाधर (Vertically) रूप से विन्यसित या स्तरित होते हैं। किसी माध्यम या अधोस्तर के स्तरों में विभिन्न पादपों व प्राणियों के विन्यास को स्तरण (Stratification) कहते हैं। स्थलीय व जलीय समुदाय में प्राय: दो मूल स्तर होते हैं -

(1) सूर्य के प्रकाश वाला ऊपरी या सुप्रकाशी क्षेत्र (Upper sunlight or Euphotic zone) - इसमें स्वपोषित अर्थात् उत्पादकों की बहुलता होती है।

(2) नीचे का पुनयोजित उपभोक्ता क्षेत्र (Lower regenerating consumer zone) - इसमें विषम पोषिक अर्थात् उपभोक्ताओं की बहुलता होती है। उदाहरण के लिए, घास स्थल समुदाय (Grassland community) में तीन स्तर भूमिगत, तलीय व शाकीय (Herbaceous) स्पष्ट होते हैं। भूमिगत स्तर में मुख्य वनस्पति की जड़ें होती हैं तथा भूमि में अनेक बैक्टीरिया, कवक व प्रोटोजोआ तथा केंचुए, कीट, स्कॉर्पियन, सर्प एवं रोडेण्ट्स (Rodents) वास करते हैं। तलीय स्तर या घास स्थल के फर्श पर वनस्पति के आधार भाग सहित घास कुल के अनेक पौधे (Runners, Suckers and Rhizomes) मिलते हैं। जन्तुओं में कीट, मकड़ी, •लिजाई तथा रोडण्ट प्रमुखता से मिलते हैं, जो वनस्पति सहित समुदाय का जलीय स्तर बनाते हैं। सबसे ऊपरी या शाकीय स्तर में घासों व शाकीय पौधों के ऊपरी भाग सम्मिलित हैं। अतः बास स्थल ऊर्ध्वाधर क्रम में विन्यसित विभिन्न स्तरित समुदायों को प्रदर्शित करता है। घास स्थल की भाँति जलीय समुदाय में भी वहीं स्तरण देखने को मिलते हैं। यह स्तरण बहुत से पर्यावरण तत्व (प्रकाश, ताप आदि) पर निर्भर करते हैं। झील के निम्न तीन स्तर सुस्पष्ट रूप से मिलते हैं -

(1) लिटोरल जोन (Littoral zone) - यह उथले पानी का प्रदेश है, जिसमें सूर्य का प्रकाश नीचे तक जाता है। इसमें केवल जड़ों वाले पौधे उगते हैं।

(2) सब-लिट्टोरल या लिप्नेटिक जोन (Sub-littoral or limnetic zone) - यह लिट्टोरल जोन से नीचे वाला भाग है जहाँ प्रकाश पूरी मात्रा में नहीं पहुँचता। इस भाग में प्लवक (Planktons), नेक्टोन्स (Nektones) और न्यूस्टोन (Neustons) पाये जाते हैं।

(3) प्रोफण्डल जोन (Profundal zone) - यह सबसे निचला या गहरा भाग है जहाँ प्रकाश नहीं पहुँचता। इसमें फोटोसिन्थेटिक ऑर्गेनिज्म (Photosynthetic organism) नहीं पाये जाते, केवल डिकम्पोजर्स (Decomposers) होते हैं।

समुदाय आवर्तिता (Community periodicity) 

किसी समुदाय के जीवों में होने वाले परिवर्तन को समुदाय आवर्तिता (Community periodicity) कहते हैं। समुदाय आवर्तिता निम्नलिखित किसी भी कारणवश हो सकता है -

(1) मौसमी या ऋतुनिष्ट आवर्तिता (Seasonal periodicity) - मौसमी परिवर्तन समुदाय के जीवों में जनन-चक्र के फलस्वरूप होती है। समुदाय के विभिन्न जीवों में जनन का समय अलग-अलग होता है। स्थलीय समुदायों में ताप, परिवर्तन उत्पन्न कर देते हैं। इन्हीं परिवर्तन के फलस्वरूप जीव शीत निष्क्रियता एवं ग्रीष्म निष्क्रियता प्रदर्शित करते हैं। विभिन्न ऋतुओं में वर्षा के कारण भी समुदायों में आवर्तिता होती है। समुद्री समुदायों में आवर्तिता के यही कारण हैं।

(2) चाँद आवर्तिता (Lunar periodicity) - यह केवल समुद्री समुदाय में पायी जाती है। चन्द्रमा के गुरुत्वीय बल से उत्पन्न ज्वार-भाटा उथले जल में रहने वाले जीवों को अत्यधिक प्रभावित करता है। इसका सर्वोचित उदाहरण पोलीकीट्स (Polychactes) हैं, जो प्रत्येक चन्द्र माह (Lunar month) में दो बार अण्डजनन करते हैं।

(3) दैनिक अथवा दिवानिश आवर्तिता (Day or Dial periodicity) - इसके अन्तर्गत रात व दिन के साथ जीवों में होने वाले परिवर्तन सम्मिलित होते हैं। प्रकाश-संश्लेषण, फूलों का खिलना, स्टोमेटा का खुलना एवं बंद होना आदि पौधों में दिवानिश आवर्तिता के उदाहरण हैं। स्थलीय समुदायों में अनेक प्राणी केवल रात्रि के समय सक्रिय होते हैं। जैसे- चमगादड़, टूट माउस (Toot mouse) आदि।

झील व सागर आदि जलीय वास स्थानों में प्राणी प्लवक (Zooplanktons) दिवानिश आवर्तिता क प्रदर्शित करते हैं। कोपीपोड्स (Copepods), क्लेडोसेरन्स (Cladocerans) व अनेक लार्वा रात्रि के समय पानी की सतह की ओर आ जाते हैं और दिन के समय ये नीचे की ओर चले जाते हैं।

(4) वंशागत आवर्तिता (Inherent periodicity) - इसे पाइन माउस (Pine mouse) के उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। यह रात व दिन के प्रभाव से मुक्त रहते हुए सक्रियता एवं निष्क्रियता की विभिन्न अवस्थाओं को दिखाता है। 

समुदाय का वर्गीकरण (Classification of Community)

क्लार्क (Clarke, 1967) ने समुदाय को वर्गीकृत किया जिसके अनुसार समुदाय को आवासीय संगठन, वर्गीकरण तथा भौगोलिक आधारों पर निम्न प्रकार से बाँटा जा सकता है -

(i) स्प्रूस बायोसीनोस (Spruce biocenose) - इस प्रकार के समुदाय में एक अथवा कुछ जातियां अन्य जातियों की उपस्थिति निर्धारित करती हैं। उदाहरण- सनोवर वृक्ष जंगल में अनेक प्रकार के जीवों को संरक्षण देते हैं।

(ii) ओक-हिकोरी बायोसीनोस (Oak Hickory biocenose) - इसमें क्षेत्र के भौगोलिक पदार्थ या भौतिक पदार्थ अन्य जातियों की उपस्थिति का नियन्त्रण करते हैं। उदाहरण- ओक तथा हिकरी वृक्षों के घने समुदाय

ऊर्जा परिवहन के आधार पर समुदाय को दो वर्गों में बाँटा गया है -

(i) दीर्घ समुदाय (Major community) - इस प्रकार के समुदाय पूर्णत: आत्मनिर्भर रहते हैं।

(ii) लघु समुदाय (Minor community)
- इस प्रकार के समुदाय अपने पड़ोसी समुदाय पर निर्भर रहते हैं।