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जीवाणुओं में लैंगिक प्रजनन (Sexual Reproduction in Bacteria)

जीवाणुओं में लैंगिक प्रजनन की विशिष्ट विधि पायी जाती है, जिसे लैंगिक पुनर्योजन (Sexual recom bination) कहते हैं। यह निम्नलिखित तीन विधियों के द्वारा पूर्ण होता है -

(1) संयुग्मन, (2) रूपान्तरण, (3) पारक्रमण ।


(1) संयुग्मन (Conjugation) -
जीवाणुओं में संयुग्मन क्रिया का वर्णन सर्वप्रथम लेडरबर्ग एवं टॉटम ने सन् 1946 में किया था। संयुग्मन के दौरान दो अलग-अलग प्रभेदों के जीवाणुओं के मध्य आनुवंशिक पदार्थ का स्थान्तरण होता है। उदाहरण - ईश्चीरिचिया कोलाई (E. coli) | F-कारक या लिंग-कारक (Sex factor) की उपस्थिति के आधार पर इस जीवाणु के दो प्रभेद होते हैं -

(i) वह प्रभेद (Strain), जिसमें F-कारक (F-Factor) उपस्थित है, Ft या दाता कोशिका (Donor cell) कहते हैं।

(ii) वह प्रभेद जिसमें F-कारक का अभाव होता है, उसे या ग्राही कोशिका (Recipient cell) कहते हैं।

संयुग्मन (Conjugation) क्रिया के समय प्रथम उपर्युक्त जीवाणु के दोनों प्रभेद पास-पास आकर जोड़ी बना लेते हैं। दाता कोशिकाओं (Donor cells) में विशिष्ट प्रकार के रोम पाये जाते हैं, जिन्हें सेक्स पिली (Sex pili) कहते हैं। ये पिली दोनों जीवाणु प्रभेदों को एक-दूसरे से संलग्न करने का कार्य करते हैं।

कुछ समय पश्चात् दोनों प्रभेदों के सम्पर्क स्थल पर एक संयुग्मन नलिका या ब्रिज (Conjugation tube or bridge) का निर्माण होता है, जिसके माध्यम से दाता कोशिका (Donor cell) का आनुवंशिक पदार्थ (DNA) ग्राही कोशिका (Recipient cell) में प्रवेश करता है।

गुणसूत्र या DNA के स्थानान्तरण के समय सर्वप्रथम DNA या F कारक कोशिका के F कारक युक्त सम्पूर्ण DNA बाह्य स्टैण्ड (Outer strand) अलग होकर ग्राही कोशिका (Recipient cells) में चला जाता है। प्रकार दाता कोशिका (Donor cell) एवं ग्राही कोशिका (Recipient cell) में F-कारक (F-Factor) DNA का एक- एक स्ट्रैण्ड पहुँच जाता है।

अंत में दोनों कोशिकाओं में उपस्थित DNA का स्ट्रैण्ड टेम्पलेट (Template) की भाँति कार्य करके अपने सम्पूरक स्ट्रैण्ड (Complementary strand) का निर्माण प्रतिकृतिकरण (Replication) क्रिया द्वारा कर लेता है। इस प्रकार F कोशिका में एक F-कारक आ जाता है तथा ग्राही कोशिका आंशिक (Partially) रूप से द्विगुणित (Diploid) हो जाती है। द्विगुणित अवस्था अल्पकालिक होती है तथा कुछ समय पश्चात् ग्राही कोशिका दाता कोशिका (Donor cell) गुणसूत्र खण्ड या F-कारक को कुछ समय पश्चात् त्याग देती है और पुनः अगुणित हो जाती है।

(2) रूपान्तरण (Transformation) - जीवाणुओं में ट्रांसफॉर्मेशन (Transformation) क्रिया की खोज सर्वप्रथम इंग्लैण्ड के जीवाणुशास्त्री फ्रेडरिक ग्रीफिथ (Fredrick Griffith) ने सन् 1928 में न्यूमोनिया (Pneu monia) रोग उत्पन्न करने वाले जीवाणु न्यूमोकोक्कस (Pneumococcus) या डिप्लोकोक्कस न्यूमोनी (Diplococcus pneumonae) के दो प्रभेदों (Strains) पर कार्य करते हुए किया था। इस जीवाणु के निम्नलिखित दो प्रभेद पाये जाते हैं-(1) संक्रामक प्रभेद (Virulent strains) या S III प्रभेद एवं (2) असंक्रामक प्रभेद (Non (virulent) या R II प्रभेद ।

न्यूमोकोक्कस (Pneumococcus) के संक्रामक प्रभेद (Virulent strain) या S III प्रभेदों में न्यूमोनिया रोग उत्पन्न करने की क्षमता पायी जाती है। इनके चारों ओर कैप्फ्यूल (Capsule) नामक आवरण पाया जाता है अर्थात् ये कैफ्यूलेटेड (Capsulated) होते हैं। इनका कैप्स्यूल पॉलिसैकेराइड्स (Polysaccharides) का बना होता है। अतः ये चिकनी भित्ति वाली (Smooth walled) होते हैं।

इस जीवाणु के असंक्रामक प्रभेद (Avirulent strain) R II प्रभेदों में न्यूमोनिया रोग उत्पन्न करने की क्षमता नहीं पायी जाती है। कैप्स्यूल का अभाव (Non-capsulated) होता है। इनकी भित्ति खुरदरी (Rough) होती है।

ग्रीफिथ (Griffith) ने अपने प्रयोगों के दौरान न्यूमोकोक्कस जीवाणु के उपर्युक्त दोनों प्रभेदों (Strains) को चूहों के शरीर में प्रविष्ट (Inject) किया तो उन्हें निम्नलिखित परिणाम प्राप्त हुए -

(i) असंक्रामक प्रभेद या R II प्रभेद (Avirulent or R II strain) को चूहों के शरीर में प्रविष्ट (Inject) कराने पर उनमें न्यूमोनिया रोग नहीं होता और सभी चूहे जीवित रहते हैं। (u) संक्रामक या S III प्रभेद (Virulent or 'S III strain) को चूहों के शरीर में प्रविष्ट (Inject) करने पर वे न्यूमोनिया रोग के कारण मृत (Died) हो जाते हैं।

(iii) जब S III प्रभेद को 60°C तक गर्म करके मृत (Heat killed) करने के पश्चात् चूहों के शरीर में प्रविष्ट किया गया तो सभी जीवित रहते हैं और उनमें न्यूमोनिया रोग नहीं होता है। (IV) जब R II भेद तथा ताप उपचारित मृत (Heat killed) S III प्रभेदों को एक साथ चूहों के शरीर में प्रविष्ट किया तो वे न्यूमोनिया रोग से ग्रसित होकर मर जाते हैं।

ग्रीफिथ (Griffith)
ने इन मृत चूहों के शरीर से जीवाणुओं को अलग करके उनका सूक्ष्मदर्शीय अवलोकन करने पर देखा कि इनके शरीर में जीवाणु के दोनों प्रभेद कैप्फ्यूलयुक्त (Capsulated) या S III प्रभेद तथा कैप्स्यूलरहित (Non-capsulated) या R II प्रभेद उपस्थित है। उपर्युक्त अवलोकनों (Observations) के आधार पर ग्रीफिथ ने निष्कर्ष निकाला कि उच्च ताप द्वारा नष्ट (Heat killed) S III प्रभेद से कोई पदार्थ RII प्रभेदों में स्थानान्तरित (Transformed) होकर उनमें संक्रमण करने की क्षमता (Virulence) उत्पन्न कर देता है तथा इसके चारों ओर कैप्प्यूल का निर्माण हो जाता है।

(3) पारक्रमण (Transduction) - ट्रांसडक्सन की क्रिया की खोज जिण्डर एवं लेडरबर्ग (1952) ने की थी। इस क्रिया में आनुवंशिक पदार्थ (Genetic material) जीवाणु के एक विभेद (Strain) से दूसरे विभेद में एक जीवाणु-विषाणु (Bacterial virus) के द्वारा होता है, जिसे बैक्टीरियोफेज (Bacteriophage) कहते हैं। इस प्रकार ट्रांसडक्शन वह क्रिया है, जिसमें आनुवंशिक पदार्थ या DNA का स्थानान्तरण एक जीवाणुभोजी की मध्यस्थता में सम्पन्न होता है।

पारक्रमण की क्रिया-विधि (Mechanism of Transduction)

ट्रांसडक्सन के समय सर्वप्रथम जीवाणुभोजी जीवाणु कोशिका भित्ति से संलग्न हो जाता है। इसके पश्चात् दोनों के सम्पर्क स्थल की कोशिका भित्ति घुल जाती है तथा वहाँ पर एक छिद्र बन जाता है, जिसके द्वारा जीवाणुभोजी का DNA जीवाणु कोशिका के अन्दर प्रवेश कर जाता है।

आगे की क्रियाओं के अनुसार जीवाणुभोजी का जीवन-चक्र या पारक्रमण की क्रिया निम्नलिखित दो प्रकार की होती हैं -

(A) लाइटिक चक्र (Lytic cycle) - इस चक्र के दौरान जीवाणुभोजी के DNA का प्रतिकृतिकरण (Replication) होता है तथा प्रत्येक DNA अपनी प्रोटीन का निर्माण करता है जो कि एक आवरण के रूप में DNA के चारों ओर एकत्रित होकर बहुत से जीवाणुभोजियों का निर्माण करता है। जीवाणु कोशिका के लयन (Lysis) के पश्चात् ये जीवाणुभोजी मुक्त हो जाते हैं।

(B) लाइसोजेनिक चक्र (Lysogenic cycle) - इस चक्र के दौरान सर्वप्रथम जीवाणुभोजी का DNA जीवाणुविक DNA (Bacterial DNA) के साथ संलग्न हो जाता है। इस अवस्था को प्रोफेज (Prophage) कहते हैं। ऐसा जीवाणु जिसमें उपर्युक्त प्रकार के प्रोफेज उपस्थित रहते हैं, उन्हें लाइसोजेनिक (Lysogenic) जीवाणु कहते हैं तथा यह क्रिया जिसमें जीवाणु DNA (Bacterial DNA) एवं फेज DNA (Phage DNA) एक साथ संयुक्त अवस्था में रहते हैं, उसे लाइसोजेनी (Lysogeny) कहते हैं।

लाइसोजेनिक चक्र के दौरान बने प्रोफेज (Prophage) के द्वारा ट्रांसडक्शन की क्रिया निम्नलिखित दो प्रकार से होती है -

(a) सामान्य ट्रांसडक्सन (Generalized transduction)

(b) विशिष्ट ट्रांसडक्शन (Specialized transduction)


(a) सामान्य ट्रांसडक्शन (Generalized transduction) - इस विधि में जीवाणुभोजी का DNA (Phage DNA), जीवाणु DNA (Bacterial DNA) के साथ संलग्न नहीं रहता है, बल्कि उससे अलग होका छोटे-छोटे खण्डों में टूट जाता है। जीवाणु DNA भी छोटे-छोटे खण्डों में टूट जाता है। इसके पश्चात् नए फेल कणों (Phage particles) का निर्माण प्रारंभ हो जाता है। नये फेज कणों के निर्माण के दौरान फेज DNA (Phage DNA) के साथ कोई भी जीवाणु DNA खण्ड (Bacterial DNA fragment) भी संलग्न (Incorpo rated) हो जाते हैं, अत: सामान्य ट्रांसडक्शन कहते हैं।

(b) विशिष्ट ट्रांसडक्शन (Specialized transduction) - इस प्रकार के ट्रांसडक्शन की क्रिया के दौरान सर्वप्रथम प्रोफेज (फेज DNA + जीवाणु-DNA) से फेज DNA (Phage-DNA) खण्ड अलग होका कोशिकाद्रव्य में मुक्त हो जाता है तथा वहाँ पर नये जीवाणुभोजियों (Bacteriophages) के निर्माण के लिये आवश्यक प्रोटीन्स (Proteins) का संश्लेषण करता है। जीवाणु DNA से अलग होते समय, फेज DNA (Phage DNA) अपने साथ जीवाणु गुणसूत्र (Bacterial chromosome) के कुछ जीन्स (Genes) को भी अपने साथ संलग्न कर लेता है। ये जीन फेज DNA (Phage-DNA) के साथ ही गुणन करते हैं। जब नवनिर्मित फेज कण  (Phage particles) जीवाणु कोशिका भित्ति के लयन (Lysis) के पश्चात् मुक्त होते हैं तथा अन्य जीवाणु कोशिका पर संक्रमण करते हैं, तब वे फेज कण अपने पूर्व जीवाणु कोशिका के DNA या जीन्स को भी ले जाता है तथा उन्हें इस नये पोषक जीवाणु के गुणसूत्र के DNA के साथ संलग्न कर देता है। इस प्रकार नयी जीवाणु कोशिका के गुणसूत्र में पूर्व जीवाणु कोशिका के जीन्स का स्थानान्तरण हो जाता है। चूँकि इस विधि में केवल कुछ विशिष्ट जीन्स का ही स्थानान्तरण संभव होता है, इसी कारण इसे विशिष्ट ट्रांसडक्शन कहते हैं।