परजीवी हेलमिन्थ (Helminth Parasitic)


निमैटोड जन्तुओं को सामान्यतः गोलकृमि (Round worm) कहा जाता है। इनका शरीर लम्बा, बेलनाकार, अखण्डित व दोनों सिरों से नुकीला होता है। शरीर मोटी क्यूटिकल से ढँका होता है। अनेक निमैटोड परजीवी होते हैं। मनुष्य में पाये जाने वाले मुख्य निमैटोइस परजीवी व उनसे उत्पन्न बीमारियाँ निम्नलिखित हैं -

1. ऐस्केरिस लुम्ब्रिकॉइडिस (Ascaris lumbricoides)

यह बच्चों की छोटी आँत में परजीवी होता है। इसका जीवन-चक्र केवल एक ही पोषक अर्थात् मनुष्य में पूरा होता है। मनुष्य में इनका संक्रमण सीधा होता हैं। इनके भ्रूणयुक्त अण्डे खाने-पीने की वस्तुओं के साथ मनुष्य की आहारनाल में चले जाते हैं व ये मनुष्य में संक्रमण शुरू कर देते हैं। ऐस्केरिस के लार्वा से पोषक को ज्यादा नुकसान पहुँचता है। • लार्वा से उत्पन्न रोग-लार्वा आँत की दीवार में छेद करके प्रवेश कर जाते हैं, जिससे रक्तस्त्राव, पेशीय ऐंठन, बुखार, ऐनीमिया हो जाता है। लार्वा फेफड़ों में केशिकाओं को तोड़ देता है, जिससे उनमें सूजन आ जाती है। अधिक संक्रमण से इओसिनोफिलिया व निमोनिया तथा मृत्यु भी हो जाती है।

वयस्क से उत्पन्न रोग - वयस्क से पेट दर्द, अपचन, निद्राहीनता, एपेण्डिसाइटिस, आमाशयी अल्सर, उल्टी आदि रोग हो जाती है। इसको उपस्थिति के कारण बच्चों की मानसिक व शारीरिक वृद्धि भी रुक सकती है।

2. एन्टीरोबियस वर्मिकुलेरिस (Enterobius vermicularis)

यह मनुष्य का सबसे सामान्य परजीवी है तथा संसार के सभी भागों में पाया जाता है, इसे पिन वार्म (Pin worm) या सूत्रकृमि (thread worm) कहते हैं। यह मनुष्य की सीकम, एपेण्डिक्स वर्मीफार्म, छोटी आँत व बड़ी आँत में पाया जाता है। एन्टीरोबियस के संक्रमण से मनुष्य में भूख की कमी, निद्राहीनता, हिस्टीरिया, गुदा में खुजली, एपेंडिसाइटिस आदि हो जाते हैं। 

संक्रमण (Infection) - से परजीवी पोषक के गुदा (anus) में प्रवेश करते समय वहाँ पर खुजली व जलन उत्पन्न करते हैं। रोगी उस स्थान को खुजलाता है तो परजीवी के अण्डे उसके नाखून में प्रवेश कर जाते हैं और भोजन के साथ पेट में पहुँच जाते हैं।

3. एन्काइलोस्टोमा ड्युओडिनेल (Ancylostoma duodenale)

इसका सामान्य नाम अंकुश कृमि (Hook worm) है। यह मनुष्य की आँत का परजीवी है। अंकुश कृमि अमेरिका, जापान, भारत, चिली इत्यादि देशों के मनुष्यों में पाया जाता है। इसकी एक अन्य जाति नैकेटर अमेरिकेनस (Nacator americanus) अमेरिका व अफ्रीका में सामान्य रूप से पायी जाती है।

हूक वर्म मनुष्य का सर्वाधिक रोगजनक परजीवी है। इससे निम्नलिखित रोग उत्पन्न होते हैं -
(i) त्वचा में - त्वचा को बेधते समय लार्वा त्वचा में खुजली एवं सूजन उत्पन्न करते हैं।
(ii) फेफड़ों में - बड़ी संख्या में होने पर ये फेफड़ों में रुधिर-साव करते हैं तथा न्यूमोनिया रोग हो जाता है।
(iii) आंत में - प्रौढ़ हूक वर्म द्वारा आँत में पीड़ा व अनेक विकार, दस्त व रक्त की कमी आदि रोग उत्पन्न हो जाते हैं। आँत से लगातार रक्त चूसने के कारण हृदय की धड़कन बढ़ जाती है, इओसिनोफिलिया हो जाता है और अन्त में यह रोगी की मृत्यु का कारण भी हो सकती है। बच्चों में इसके संक्रमण से उनको मानसिक व शारीरिक वृद्धि रुक जाती है, चक्कर आने लगते हैं, नींद नहीं आती तथा दृष्टि कमजोर हो जाती है।

संक्रमण (Infection) - इसकी तीसरी अर्थात् filariform juvenile अवस्था संक्रामी होती है। यह चार माह से भी अधिक समय तक नम मिट्टी में जीवित रह सकता है। ऐसी मिट्टी में नंगे पैर चलने पर लावां त्वचा को भेद कर शरीर में प्रवेश करते हैं। लार्वा से संदूषित भोजन, जल ग्रहण करने से भी संक्रमण होता है।

4. ड्रेकुनकुलस मेडिनेन्सिस (Dracunculus medinensis)

इसका सामान्य नाम गिनी कृमि (Gunica worm) सर्प कृमि (Serpent worm) है। यह अफ्रीका, भारत, फारस, तुर्किस्तान, उत्तरी अमेरिका, चीन, गाइनास इत्यादि गर्म भागों में पाया जाता है। वयस्क कृमि मनुष्य की त्वचा में धँसा रहता है। गिनी वर्म के संक्रमण से खुजली, जी मितलाना (Nausea), अतिसार (Diarrhoea), उल्टी (Vomi-ting), दमा (Asthamu), संक्रमित भाग में बहुत अधिक दर्द, इओसिनोफिलिया (Eosinophilia) इत्यादि रोग उत्पन्न हो जाते हैं।

संक्रमण (Infection) - मादा प्राय: पोषक पैरों पर विषाक्त स्रावित करती है, जिससे वहाँ एक बडा छाला (Ulcer) या फिर एक बड़ा घाव बन जाता है। जब मनुष्य पानी में जाता है, तो इस घाव के द्वारा मादा अपने लार्वा (Larva) को पानी में छोड़ देती है। ये लार्वा फिर एक छोटे जलीय क्रस्टेशियन साइक्लॉप्स (Cyclops) जो इसका मध्यस्थ परपोषी (intermediate host) होता है, के शरीर में प्रवेश करता है तथा लगभग तीन सप्ताह में संक्रमित हो जाता है। मनुष्य जब पानी के साथ इन साइक्लॉप्स को निगल लेता है, तो ये उसके शरीर में जाकर वयस्क में परिवर्तित हो जाते हैं।

5. ट्राइकिनेला स्पाइरैलिस (Trichinella sptralis)

मनुष्य, सूअर तथा अन्य कशेरुकियों की आंत का परजीवी है। इसको सामान्यत: कशा कृमि (Whip worm) कहते हैं। यह सामान्यत: यूरोप, अमेरिका तथा उत्तरी ध्रुवीय प्रदेशों में पाया जाता है। इसके मध्यस्थ पोषक सूअर व रीछ होते हैं। यह पोषक की पेशियों में पुटी (Cysts) बनाता है। ट्राइकिनेला के संक्रमण से मनुष्य में ट्राइकिनोसिस (Trichi nosis) रोग हो जाता है, जिससे पेट में दर्द, रक्त स्राव (Haemorrhage), पेशी ऐंठन (Muscular twitching) तथा पेशियों में दर्द, अतिसार (Diarr hoea), हाइपरइओसिनोफिलिया (Hyper-eosino philia), निमोनिया, थ्रॉम्बोसिस (Thrombosis), जी मितलाना (Nausea), वृक्क-निष्क्रिय (Kid ney failure), नेक्रोसिस (Necrosis) व शरीर के विभिन्न भागों में सूजन हो जाती है।

संक्रमण (Infection) - ट्राइकिनेला का मनुष्य में संक्रमण पोषक सूअर या रीछ के कच्चे या अधपके मांस के खाने से होता है।

6. ट्राइकुरिस ट्राइक्यूरा (Trichuris tric hura)

इसको कशा कृमि (Whip worm) भी कहते हैं। यह संसार के लगभग सभी भागों में पाया जाता है, परन्तु उष्ण कटिबन्धीय भागों में विशेष रूप से मिलता है। ट्राइकुरिस मनुष्य की सीकम (Caecum), एपेण्डिक्स वर्मिफार्म (Appendix vermiform) तथा आँत को विलाई (Villi) के बीच व म्यूकस मेम्ब्रेन में धँसे हुए पाये जाते हैं। इनके अधिक संक्रमण से मनुष्य में रक्ताल्पता (Anaemia), पेट दर्द, मल के साथ रक्त जाना आदि रोग हो जाते हैं।

संक्रमण (Infection) - इसके अण्डे मनुष्य के मल के साथ बाहर चले जाते हैं व मिट्टी में मिल जाते हैं अगर मनुष्य इन अण्डों को खाने-पीने की वस्तुओं के साथ ग्रहण कर लेता है, तो उसमें संक्रमण हो जाता है।

7. वाउचेरिया बैंक्रोफ्टी (Wucheria bancrofti)

इसको मानव फाइलेरिया कृमि (Human filaria worm) कहते हैं। यह वयस्क कृमि मनुष्य की लसीका ग्रंथियों (Lymphatic glands) व पेशीय ऊतकों में परजीवी होता है। ये कुण्डलित अवस्था में पाये जाते हैं। फाइलेरिया संसार के अधिकतर गर्म भागों जैसे- अरब, भारत, मलाया, चीन, कोरिया तथा जापान में पाया जाता है। इसका मध्यस्थ पोषक क्यूलेक्स या एडीस (Culex or Aedes) मच्छर होता है।

फाइलेरिया के संक्रमण से मनुष्य में ज्वर, मानसिक शक्तिहीनता, सिर दर्द आदि रोग हो जाते हैं। इनके अधिक संक्रमण से लसीका ग्रंथियों के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं, जिससे फीलपाँव (Elephantiasis) या फाइलैरिएसिस (Filariasis) रोग हो जाता है, जिससे पाँव, वृषणकोष (Scrotum), स्तन ग्रंथियाँ आदि बहुत अधिक फूल जाते हैं।

संक्रमण (Infection) - जब संक्रमित मच्छर मनुष्य को काटता है, तो तृतीय प्रावस्था के लार्वा युग्म या जोड़ों (Pairs) में जख्म के समीप त्वचा पर एकत्रित हो जाते हैं। त्वचा की उष्णता से आकर्षित होकर लार्वा जख्म के द्वारा या त्वचा को भेदकर शरीर के अन्दर प्रवेश कर जाते हैं। यहाँ से ये लिम्फ नालों (Lymphatic channels) में पहुँच जाते हैं और प्रौढ़ में कायान्तरित होने के लिए किसी स्थान पर स्थिर होकर बैठ जाते हैं। 5-18 माह के अन्दर प्रौढ़ लैंगिक रूप से परिपक्व हो जाते हैं और माइक्रोफाइलेरिआई की नयी पीढ़ियाँ उत्पन्न करना आरम्भ कर देते हैं।

8. स्ट्रॉन्जिलॉइडीस स्टरकोएलिस (Strongyloides stercoalis)

इसको साधारणत: सूत्र कृमि (thread worm) कहते हैं। यह मनुष्य को आँत में परजीवी होता है। इसके संक्रमण से मनुष्य में स्ट्रॉन्जिलॉइडोसिस (Strongyloidosis) रोग हो जाता है, जिसमें जी मितलाना (Nausea), चक्कर आना, खूनी अतिसार (Bloody diarrhoea) इत्यादि की शिकायत रहती है।

9. लोआ-लोआ (Loa-loa)

इसको नेत्र कृमि (Eye worm) भी कहते हैं। यह अफ्रीका के मनुष्यों के उपत्वक ऊतक (Subcutaneous tissue) व नेत्र गोलक (Eye ball) में पाये जाते हैं। इसका मध्यस्थ पोषक एक आम की मक्खी (mango fly), क्राइसॉप्स डिमीडिएटा (Chrysops dimidiata) या क्राइसॉप्स सिलेसिया (C. silacea) होती है।

जब इनके लार्वा, माइक्रोफाइलेरिया (Microfilaria) मनुष्य के मस्तिष्क (Brain) व मेरुरज्जु (Spinal cord) में प्रवेश कर जाते हैं तो घातक परिणाम उत्पन्न कर देते हैं। इनके द्वारा नेत्र में सूजन व दर्द भी होता है. जिसको कैलेवार शोध (Calabar swelling) कहते हैं।

संक्रमण (Infection) - क्लॉइसॉप्स मक्खी जब मनुष्य का रक्त चूसती है, तो लार के साथ ये लार्वा को मनुष्य के रक्त में छोड़ देती है, जिससे मनुष्य में इनका संक्रमण हो जाता है।