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फैसिओला पर टिप्पणी - Comments on Fasciola

फैसिओला का जीवन-चक्र (Life cycle of Fasciola) - यह मनुष्य के यकृत में रहता है तथा डाइजेनेटिक होता है, जिसका मुख्य पोषक सुअर तथा द्वितीय पोषक घोंघा होता है।

यह उभयलिंगी जन्तु होता है, परन्तु इसमें पर-निषेचन (Cross fertilization) होता है, जो पोषक की पित्तवाहिनी में मैथुन करता है। नर सिरस के द्वारा शुक्राणु को मादा की अण्डवाहिनी तक पहुँचाता है। जहाँ निषेचन क्रिया होती है।

प्रत्येक निषेचित अण्डा चारों ओर से योक कोशिका से घिरा रहता है, जिसमें योक होता है, उन्हीं कोशिका का सेल ग्लोब्यूल निषेचित अण्डों के चारों ओर कैप्स्यूल का निर्माण करता है, जिसके बाद विखण्डन शुरू होता तथा गर्भाशय में ही अण्डों का विदलन शुरू हो जाता है। प्रथम विभाजन पूर्ण व असमान होता है, जिससे एक छोटी प्रवर्धी कोशिका (Propagatory cell) व दूसरी बड़ी कायिक कोशिका (Somatic cell) एक्टोडर्मल कोशिका बनाती है। सोमैटिक कोशिका बार-बार विभाजित होकर लार्वा का एक्टोडर्म बनाती है, जबकि प्रवर्धी कोशिका विभाजित होकर दो प्रकार की सन्तति कोशिकाएँ बनाती हैं। इनमें से एक सोमैटिक कोशिकाएँ बनाती है जो लार्वा के शारीरिक अंगों का निर्माण करती है और दूसरी जनन कोशिकाएँ बनाती हैं, जो लार्वा के पिछले भाग में इकट्ठी रहती है। लिवर फ्लूक के इन सम्पुटित (Encapsulated) भ्रूण या ओविक भ्रूण (Ovic embryo) का गर्भाशय में इससे आगे परिवर्धन नहीं होता है। इनकी एक बड़ी संख्या फ्लूक के शरीर से गोनोपोर या जनन छिद्र के द्वारा बाहर निकलकर पित्त रस के साथ पोषक (भेड़) के आँत में आ जाती है। जहाँ से ये मल के साथ बाहर वातावरण में आ जाते हैं। इस सम्पुटित भ्रूणों का आगे परिवर्धन तभी सम्भव होता है, जब ये (तापमान 22°C-25°C) अनुकूल परिस्थितियों में आने पर 9 से 15 दिनों के बीच ये भ्रूण मिरासिडियम लार्वा में बदल जाते हैं। कैप्स्यूल के अन्दर यह लार्वा एक प्रोटिओलिटिक एन्जाइम का स्रावण करता है, जिससे ऑपरकुलम को चिपकाये रखने वाला पदार्थ घुल जाता है और लार्वा मुक्त होकर जल में तैरने लगता है।

मिरासिडियम लार्वा (Miracidium larva) - यह लिवर फ्लूक के जीवन-वृत्त में पहली अवस्था है, जो अण्डाकार तथा सघन रूप से सिलियेटेड होता है। इसके अपेक्षाकृत चौड़े अगले सिरे पर एक गतिशील शीर्षक पैपिला (Apical papilla) होता है, इस पर सिलिया का पूर्ण अभाव होता है। इसका शरीर चपटा और सिलियायुक्त एपिडर्मल प्लेट्स से ढँका रहता है, जो पाँच पंक्तियों में व्यवस्थित रहता है। प्रत्येक पंक्ति में प्लेट्स की संख्या और व्यवस्था निश्चित रहती हैं। सबसे आगे की ओर पहली पंक्ति में छ: प्लेट्स होती हैं, जिनमें से दो पृष्ठीय, दो लेटरल तथा दो अधरीय होती हैं। द्वितीय पंक्ति में भी छ: प्लेट्स होती हैं, परन्तु इनमें तीन पृष्ठीय तथा तीन अधरीय होती हैं। तीसरी पंक्ति में तीन प्लेट्स होती हैं, जिनमें एक पृष्ठीय और दो वैण्ट्रोलेटरल होती हैं। चौथी पंक्ति में चार प्लेट्स दो दाहिनी और दो बायीं ओर पाई जाती हैं। सबसे पीछे पाँचव पंक्ति में केवल दो प्लेट पाई जाती हैं। एक दायीं तथा दूसरी बाय तरफ रहती है।

एपिडर्मल प्लेटों के नीचे सब-एपिडर्मल पेशीन्यास का एक महीन स्तर होता है, जिसमें बाहर की ओर सरकुलर और अन्दर की ओर लम्बवत् पेशी स्तर होता है। पेशीन्यास के नीचे सब-एपिथीलियम कोशिकाओं का स्तर होता है। इस प्रकार एपिडर्मल, प्लेट्स, सब-एपिडर्मल पेशीन्यास तथा सब एपिथीलियम ये तीनों मिलकर मिरासिडियम लार्वा की देहभित्ति बनाते हैं।

आन्तरिक रचना (Internal structure) –
मिरासिडियम के अन्दर अनेक रचनाएँ पाई जाती हैं। इनमें से एक रचना थैले के समान शरीर के अग्रभाग से एपिकल पैपिला के केन्द्र से एक वृत्त द्वारा जुड़ी रहती है। इसके अन्दर ग्रेन्यूलर साइटोप्लाज्म तथा अनेक केन्द्रक पाये जाते हैं इसे एपिकल ग्लैण्ड कहते हैं। इसके पास ही एक जोड़ी बड़ी एककोशिकीय पेनिट्रेशन ग्लैण्ड पाई जाती है, जो अपने छिद्रों के द्वारा एपिकल पैपिला के पास खुलती है। पृष्ठ सतह पर द्वितीय पंक्ति की एपिडर्मल प्लेट्स के नीचे एक चौकोर-सा बड़ा मस्तिष्क और उससे जुड़े तंत्रिका तन्तु पाये जाते हैं। मस्तिष्क के ऊपर की ओर 'X' की आकृति के लार्वा के नेत्र पाये जाते हैं, जो अर्द्धचन्द्राकार वर्णक कोशिकाओं के बने होते हैं। एक जोड़ी प्रोटोनेफ्रिडिया शरीर के पिछले भाग में होते हैं, जो लेटरल सतह पर प्रोटोनेफ्रिडियल छिद्रों द्वारा खुलते हैं। पिछले भाग में ही जनन कोशिकाओं का समूह भी होता है। मिरासिडियम लावां पानी में तैरता रहता है, जो अण्डे से बाहर निकलने पर 8-24 घण्टे तक जीवित रहता है तथा एपिकल पैपिली के द्वारा द्वितीय पोषक के साथ चिपक जाता है। इसकी सिलियल एपिथीलियम उतर जाती है तथा 14 दिन के बाद स्पोरोसिस्ट (sporocyst) में बदल जाता है।

स्पोरोसिस्ट (Sporocyst) - इसमें सिलियल एपिथीलियम को छोड़कर शेष सभी स्तर मिरासिडियम के समान होते हैं। एपिडर्मिस के बदले क्यूटिकल का आवरण होता है। सभी अंग जैसे-ग्रन्थियाँ, मस्तिष्क, नेत्र व एपिकल पैपिली लुप्त हो जाते हैं तथा प्रोटोनेफ्रिडिया विभाजित होकर दो हो जाते हैं, जो सम्मिलित उत्सर्जी नलिका के द्वारा बाहर खुलते हैं। इसमें जनन कोशिका भी होती है। यह पोषक की पाचक ग्रन्थि से भोजन प्राप्त करता है तथा इसकी जनन कोशिकाओं में परिवर्तित होकर रेडिया लार्वा बनाता है, जिनकी संख्या एक स्पोरोसिस्ट में 5-8 होती है।

रेडिया लार्वा (Radia larva) - यह स्पोरोसिस्ट के फटने से निकलता है। इसके अगले सिरे पर भ्रूण तथा पेशीय उभार कॉलर होता है, जिसके पीछे जनन छिद्र स्थित होता है। पिछले सिरे के पास एक लेटरल प्रवर्ध लेपेट्स होता है। शरीर भित्ति क्यूटिकल पेशी स्तर व उपकला की बनी होती है। मुख ग्रसनी में खुलता है, जिसको दीवार में ग्रन्थि होती है। ग्रसनी पीछे आँत में खुलती है। गुदाद्वार नहीं होता है। प्रोटोनेफ्रिडिया शाखान्वित व उनके ऊपर ज्वाला कोशिका होती है, जो सम्मिलित उत्सर्जी नलिका के द्वारा बाहर खुलती है। लार्वा के शरीर में जनन कोशिका तथा मीसेनकाइमा भरा होता है।

रेडिया लार्वा पोषक की पाचक ग्रन्थि से भोजन प्राप्त करता है तथा प्रतिकूल परिस्थिति में रेडिया की अगली पीढ़ी व अनुकूल परिस्थिति सर्केरिया लार्वा को जन्म देता है।

सर्केरिया लार्वा (Cercaria larva) - रेडिया लार्वा 14-20 सर्केरिया लार्वा बनाता है जो जनन छिद्र से निकलकर पोषक की पाचक ग्रन्थि में आकर पोषण करने लगते हैं। इनका शरीर चपटा तथा बेलनाकार होता है। शरीर के पिछले भाग पर एक पुच्छ होती है। क्यूटिकल का आवरण होता है। ओरल सकर तथा ऐसीटाबुलम होता है। शरीर के अगले सिरे पर मुख होता है, जो ओरल सकर से घिरा रहता है। मुख फैरिक्स में खुलता है, जिसके नीचे ईसोफेगस तथा आँत होती है। आँत दो भागों में बँटी होती है। दोनों लेटरल सतह पर प्रोटोनेफ्रिडिया जिनके ऊपर ज्वाला कोशिका जो एक सम्मिलित उत्सर्जी नलिका के द्वारा बाहर खुलती है, होती है। इसके शरीर में जनन कोशिका होती है। अब लार्वा पोषक के शरीर से बाहर आकर 2-3 दिन तक स्वतन्त्र रूप से तैरता इसके बाद पौधों से चिपक जाता है। पुच्छ समाप्त हो जाती है तथा इसके चारों ओर कठोर सिस्ट का निर्माण होता है, जो मेटासर्केरिया लार्वा में बदल जाता है।

मेटासर्केरिया लार्वा (Metacercaria larva) - ये पौधों से चिपके होते हैं तथा सिस्ट में बन्द होते हैं। इसका आगे विकास प्राथमिक पोषक में पहुँचने के बाद होता है। यकृत में पहुँचने पर यह भोजन करना शुरू करता है तथा 5-6 सप्ताह में बड़ा हो जाता है, जो पित्तवाहिनी में पहुँचकर स्थिर हो जाता है।