मुर्गी के परिवर्धन में भ्रूणीय कलाएं

कशेरुकी प्राणियों के परिवर्धन के समय कुछ ऐसी संरचनाएँ निर्मित होती हैं, जो कि भ्रूण के निर्माण में सहायक नहीं होती हैं, परन्तु विकसित हो रहे भ्रूण की रक्षा एवं व्यवस्थापन के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। ये संरचनाएँ अस्थायी या स्थायी होती हैं।

सामूहिक रूप से इन संरचनाओं को भ्रूणीय झिल्लियाँ (Foetal membranes) या बाह्य भ्रूणीय झिल्लियाँ (Extra embryonic membranes) कहते हैं। ये कशेरुकी प्राणियों के भ्रूण के परिवर्धन के लिए अति आवश्यक होती हैं। ये चार प्रकार की होती हैं- (1) योक सेक, (2) ऐम्निऑन (3) कोरिऑन तथा (4) ऐलेण्टॉइस। ये झिल्लियाँ जिन जन्तुओं में बनती हैं, उन्हें ऐम्निओट्स तथा जिन जन्तुओं में नहीं बनती हैं, उन्हें एनऐम्निओट्स कहते हैं ।

मुर्गी परिवर्धन में भ्रूणीय झिल्लियाँ - ये निम्नलिखित प्रकार की होती हैं -


(i) ऐम्निऑन तथा कोरिऑन (Amnion and chorion) -ब्लास्टोडर्म से भ्रूण बनने के अतिरिक्त उसके भ्रूण बाह्य क्षेत्र से ये भ्रूण झिल्लियाँ बनाती हैं। ब्लास्टोडर्म का सोमेटोप्लूट भ्रूण के सामने प्रत्येक पार्श्व में एक वलन के रूप में उठता है, यह भ्रूण को ऊपर से घेर लेता है तथा छतरीनुमा रचना का निर्माण करता है। इस वलन में भ्रूण बाह्य सीलोम भी पहुँच जाती है। इसमें सोमेटोप्लूट की दो परतें होती हैं। बाह्य परत को कोरिऑन कहते हैं, जिसमें बाहरी एक्टोडर्म और भीतरी मीजोडर्म होती है और दूसरी परत ऐम्निऑन होती है, जिसमें भीतर की ओर एक्टोडर्म तथा बाहर की ओर कायिक (Somatic) मीजोडर्म होती है। यह मीजोडर्म कोरिऑन की मीजोडर्म की दोनों परतों के बीच से भ्रूण बाह्य सीलोम होती है, ये वलन पीछे की ओर बढ़ते जाते हैं तथा भ्रूण को ऊपर से पूर्ण ढँक लेते हैं। ऐम्निऑन तथा कोरिऑन का मिलन बिन्दु अपूर्ण रहता है, क्योंकि इसमें दोनों के सिर्फ एक्टोडर्म भाग लेते हैं। यह एक्टोडर्म का मिलन सिरो-ऐम्निऑटिक सन्धि कहलाता है। ऐम्निऑन एक द्रव से भरी हुई गुहा होती है, जो भ्रूण को द्रव में डुबाये रहती है, इस गुहा को ऐम्निऑटिक गुहा कहते हैं। इस प्रकार कोरिऑन भ्रूण को सूखने से तथा तापमान के उतार-चढ़ावों से बचाता है। बाहरी ऐल्बुमेन से ऐम्निऑटिक द्रव द्वारा जल अवशोषित किया जाता है, यह द्रव भ्रूण को बाहरी धक्के आदि आघातों से बचाता है। कोरिऑन योक के आस-पास बढ़ता है तथा रक्त वाहिकामय बन जाता है।

(ii) ऐलेण्टॉइस (Allantois) - पश्च आँत या क्लोएका के समीप स्प्लैंक्नोप्लूअर (Splanc-honopleure) भ्रूण के निचली तरफ से बढ़ता है तथा एक थैलेनुमा रचना बनाता है, जिसे ऐलेण्टॉइस कहते हैं। इसकी भीतरी परत एण्डोडर्म तथा बाहरी परत स्प्लैंक्निक मीजोडर्म होती है। यह थैला तेजी से बढ़ता है तथा बाह्य भ्रूण सीलोम में प्रवेश कर इसे लगभग पूरा भर देता है। ऐलेण्टॉइस की बाह्य स्प्लैंक्निक मीजोडर्म कोरिऑन की भीतरी कायिक मीजोडर्म से मिलकर एक ऐलेण्टोकोरिऑन का निर्माण करता है। यह ऐल्बुमेन के आस-पास बढ़कर एक एल्बुमेन थैले की रचना करता है। अभी भी ऐलेण्टॉइल भ्रूण पश्च आन्त्र से ऐलेण्टॉइल-वृन्त द्वारा जुड़ा रहता है। स्प्लैंक्नोप्लूअर की रक्त वाहिनियों की मदद से ऐलेण्टॉइल का भी रक्त वाहिकामय हो जाता है। यह ऐलेण्टॉइक धमनियों से भी रक्त प्राप्त करता है। इन्हें नाभि धमनी भी कहा जाता है। ऐलेण्टॉइस भ्रूण के मूत्राशय की तरह कार्य करता है, यह वृक्क प्रदत्त अम्ल के संग्रह में लीन रहता है। ऐलेण्टॉइस कवच झिल्लियों के सम्पर्क में रहकर श्वसन में मदद करता है। भ्रूणीय अवस्था के पश्चात् ऐलेण्टॉइस पूर्ण रूप से अवशोषित कर लिया जाता है।

(iii) योक सैक (Yolk sea) - बहुपीतकी अण्डे में योक इतना ज्यादा हो जाता है कि वह विकासशील भ्रूण के शरीर में सिमट नहीं सकता। अतः एक योक सैक बनता है, जिसमें योक भरा रहता है। भ्रूण बाह्य स्प्लैंक्नोप्लूअर योक के ऊपर की ओर बढ़ता है और एक योक सैक बनाता है। इसमें भीतरी परत एण्डोडर्म की और एक बाहरी परत स्प्लैंक्निक मीजोडर्म की होती है। योक सेक एक योक वृन्त की मदद से भ्रूण की मध्य आँत से जुड़ा रहता है, यह काफी रक्त वाहिकामय होता है। योक सैक फैलता है और सम्पूर्ण योक को घेर लेता है। इसकी एण्डोडर्म परत योक का पाचन व अवशोषण करती जाती है और भ्रूण का पोषण करती है। जन्म के समय योक सैक आहारनाल में समा जाता है।


उपर्युक्त चार भ्रूणीय झिल्लियों में ऐम्निऑन तथा कोरिऑन में रक्त वाहिनियाँ नहीं पायी जाती हैं, जबकि ऐलेण्टॉइस और योक सैक में पायी जाती हैं।