जलीय स्तनों एवं अनुकूलन (Aquatic Mammals and Adaptations)

स्तनी मुख्य रूप से स्थलीय जीव है किन्तु कुछ स्तनियों में जलीय जीवन विधि द्वितीयक विधि के रूप में दिखाई देती है। इन जलीय स्तनियों में सभी में, फेफड़ों से श्वसन क्रिया होती है जो उनके मूल स्थलीय जीवन पद्धति को प्रदर्शित करती है सभवत: वे भोजन या आवास हेतु जल में लौट गये होंगे।

जलीय स्तनियों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है -

1. उभयचरी स्तनी (Amphibians mammals) - ये स्तनी स्थायी रूप से जल में नहीं रहते परन्तु भोजन व आवास के लिए जल में जाते हैं। यह आंशिक जलीय अनुकूलन प्रदर्शित करते हैं। पादजालयुक्त पैर, छोटे बाह्य कर्ण, चपटी पूँछ, अवत्वकीय वसा आदि । उदाहरण-मिंक, सील, ऊदबिलाव, वॉलरस, बीवर, दरियाई घोड़ा, आर्निथोरिंकस आदि ।

2. पूर्णतया जलीय स्तनी (Completely aquatic mammals) - यह स्तनी पूर्णतया जल में पाये जाते हैं तथा कभी भूमि पर नहीं आते। यह अनेक तरह के अनुकूलन प्रदर्शित करते हैं जैसे-इन्ट्रानेरियल एपीग्लॉटिस, तिर्यक डायफ्राम, फ्लिपर्स, बड़े फेफड़े, धारारेखित शरीर आदि। उदाहरण - गण - सिटेशिया (व्हेल्स, डॉल्फिन्स) एवं गण - साइरेनिया (मैनेटिस, ड्यूगोंग) के जीव।

जलीय अनुकूलन (Aquatic Adaptation)

A. मूल संरचनाओं का रूपान्तरण

(a) शारीरिक आकृति (Body shape) - जलीय स्तनियों का शरीर मछली के समान, सिर बड़ा, ग्रीवा अस्पष्ट व धारारेखित होता है जो जल में तैरते समय प्रतिरोध को कम करता है।

(b) बड़ा आकार व भार (Large size and weight) - जलीय स्तनियों का बड़ा आकार त्वचा की रगड़ व ऊष्मा की हानि को घटाता है परन्तु उत्प्लावकता के कारण जल में आलंब के लिए कोई समस्या उत्पन्न नहीं करता।

(c) फ्लिपर्स (Flippers) - अग्रपाद फ्लिपर्स में रूपान्तरित हो जाते हैं। जो संतुलकों (Balancers) की भाँति कार्य करते हैं और तैरने में स्थिरता प्रदान करते हैं।

(d) अधिकांगुलता एवं अध्यांगुलिपर्वrता (Hyperdactyle and Hyperphalangy) - अतिरिक्त अंगुलियाँ व अधिक अतिरिक्त अंगुलास्थियाँ (अध्यांगुलिपर्वता) फ्लिपर्स के जल में अधिक उपयोग के लिए उनके तल, क्षेत्रफल में वृद्धि करने का कार्य करती है।

(e) उच्च व कपाट युक्त नासारंध्र (High and Valvular nostrils) - नासारंध्र सिर के शिखर पर व कपाटयुक्त होते हैं जो जल में सिर को अधिक ऊठाये बिना श्वसन में सहायक होते हैं।

(f) स्तनग्रंथि वाहिनियाँ (Mammary ducts) - स्तन ग्रंथि से दूध एक विशेष संपीड़क पेशी द्वारा सीधे शिशु के मुख में पंप कर दिया जाता है जो जलीय माध्यम में शिशु के स्तनपान को सुगम बनाता है।

(g) तिर्यक तनुपट व बड़े फेफड़े (Oblique diaphragm and large lungs) - फेफड़े लचीले व बड़े होते हैं तथा तिरछा डायफ्राम फेफड़ों में प्रसार के लिए अधिक स्थान प्रदान करता है।

(h) दाँत (Teeth) - दाँतदार व्हेल्स में दाँत एकबार दंती, समदंती होते हैं जिनका घर्षण में कोई कार्य नहीं होता है।

B. संरचनाओं की हानि (Loss of Structures)

थोड़े संवेदी शूकों को छोड़कर बालों की हानि के कारण त्वचा चिकनी व चमकदार होती हैं। कर्ण पल्लव अनुपस्थित होते हैं। निमेषक झिल्ली, अश्रुग्रंथियाँ स्वेद व वसीय ग्रंथियाँ भी अनुपस्थित होती है। पश्चपाद लुप्त हो जाते हैं परन्तु भ्रूण में बटन समान घुडियो के रूप में पाये जाते हैं। श्रोणि मेखला ह्रासित होती है। ऊँगलियों के नाखून केवल भ्रूण में अवशेषी रूप में पाये जाते हैं। वृषण कोष भी वही पाया पाया जाता है।

C. नवीन संरचनाओं का विकास (Development of New Structures)

अनेक नयी रचनाओं का विकास होता है जैसे पुच्छ पर्णाभ (Tail flukes) यह पुच्छ त्वचा के बड़े, पावय या क्षैतिज प्रसार होते हैं जो शरीर का जल में नोदन (Propel) करते है।

पृष्ठ पंख (Dorsal fin) बिना आंतरिक कंकालीय आलंब का एक अयुग्मित वसीय पृष्ठ पंख विकसित होता है जो दिक् नियंत्रक की भांति कार्य करता है। ब्लबर (Blubber) वसा का मोटा अव-त्वकीय स्तर होता है जो बालों के आवरण के अभाव को पूरा करता है।

यह ऊष्मा प्रतिरोधक की तरह कार्य करता है। व्हेल्स में दाँतों के स्थान पर ऊपरी जबड़े में बेलीन (Baleen) शृंगास्थि द्वारा निर्मित असंख्य त्रिकोणाकार, झालरदार शृंगी प्लेट्स की दो अनुप्रस्थ पंक्तियाँ पायी जाती है। नासारंध्रो के सामने मेलन (Melon) संवेदी अंग स्थित होता है। यह संभवत: जल में दाब के परिवर्तन को ज्ञात करता है। जल में नेत्रों की सुरक्षा के लिए हार्डेर ग्रंथियों द्वारा एक विशिष्ट वसीय पदार्थ का स्राव किया जाता है।