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कशेरुकी के नर जनन तंत्र - Male reproductive system of vertebrates in Hindi

कशेरुकी के नर जनन तंत्र

अधिकांश कशेरुकी में जनन लैंगिक विधि से होता है। स्तनियों में जनन के लिए जनन तंत्र नर एवं मादा में अलग-अलग पाये जाते हैं। ऐसे जीव जो कि केवल शुक्राणु बनाते हैं, उन्हें नर तथा केवल अण्डाणु (Ovum) बनाते हैं, उन्हें मादा या स्त्री कहते हैं। नर जनन तंत्र में निम्नलिखित अंग पाये जाते हैं -

(1) वृषण एवं वृषणकोष (Testis and Scrotal Sac or Scrotum) - मनुष्य में शुक्राणुओं के निर्माण के लिए एक जोड़ी वृषण पाया जाता है, जो शरीर से बाहर त्वचा की एक थैली में दोनों पैरों के बीच में शिश्न (Penis) के दोनों तरफ लटकता रहता है। त्वचा की इस थैली को वृषणकोष (Scrotum) कहते हैं। चूंकि शुक्राणुओं का निर्माण देहगुहा के तापक्रम पर नहीं हो पाता बल्कि यह देहगुहा से 2-3°C कम ताप पर बनता है इसी कारण वृषण उदर गुहा के बाहर लटकता रहता है, जबकि भ्रूणीय अवस्था में यह उदर गुहा में ही पाया जाता है। आकार की दृष्टि से प्रत्येक वृषण लगभग 2.5 सेमी. लम्बा और 1-25 सेमी. मोटा तथा अण्डाकार होता है।

वृषण की औतिकी (Histology of Testis)

रचनात्मक दृष्टि से वृषण गोल या अण्डाकार रचना है, जो चारों तरफ से पेरिटोनियम (Peritonium) झिल्ली द्वारा घिरी रहती है। इस झिल्ली के अन्दर वृषण के चारों तरफ तन्तुमय संयोजी ऊतक का आवरण पाया जाता है, जिसे ट्यूनिका एल्ब्यूजिनिया (Tunica albuginea) कहते हैं। इस आवरण के अन्दर वृषण में संयोजी ऊतक भरा होता है, जिसमें 400-600 कुण्डलित नलिकाएँ पड़ी रहती हैं। इन नलिकाओं को शुक्रजनन नलिकाएँ (Seminiferous tubules) कहते हैं। इन नलिकाओं के बीच-बीच में बने खाली स्थानों में रुधिर वाहिकाएँ, तन्त्रिकाएँ तथा कोशिकाओं के छोटे समूह पाये जाते हैं, इन कोशिकाओं को अन्तराली कोशिकाएँ (Interstitial cells) या लेडिग्स कोशिकाएँ (Leydig's cells) कहते हैं। ये कोशिकाएँ टेस्टोस्टीरॉन नामक लिंग हॉर्मोन्स का स्रावण करती है, जो नर के द्वितीयक लैंगिक लक्षणों के विकास को प्रेरित करता है। वृषण में स्थित शुक्रजनन नलिका में ही शुक्राणुओं का निर्माण होता है। प्रत्येक शुक्रजनन नलिका गोलाकार नलिका के रूप में होती है तथा इसकी दीवार दो स्तरों की बनी होती है। बाहर की स्तर को मेम्ब्रेना प्रोपिया (Membrana propia) तथा अन्दर की ओर की एककोशिकीय स्तर को जनन उपकला (Germinative epithelium) कहते हैं। जनन उपकला के बीच-बीच में कुछ फूली हुई, बड़ी कोशिकाएँ दिखायी देती हैं, जिन्हें सरटोली कोशिकाएँ (Sertoli cells) कहते हैं। ये कोशिकाएँ आधार या नलिका की परिधि की तरफ चौड़ी तथा गुहा की तरफ सँकरी होती हैं। ये कोशिकाएँ विकसित हो रहे शुक्राणुओं को पोषण देती हैं। शुक्राणु सरटोली कोशिकाओं में सिर के माध्यम से धँसे रहते हैं। जनन एपिथीलियम की कोशिकाएँ ही विकसित होकर अर्द्धसूत्री विभाजन के द्वारा शुक्राणुओं का निर्माण करती हैं।

स्तनियों का वृषणकोष शरीर से बाहर तो होता है, लेकिन एक सँकरी नली जिसे वक्षण नाल (Inguinal canal) कहते हैं, के द्वारा उदर गुहा से जुड़ा रहता है। कभी-कभी वृषण इसी नाल में वृषणकोष से ऊपर उठकर प्रवेश कर जाता है। प्रत्येक वृषण का पश्च भाग लचीले तन्तु समूहों द्वारा वृषणकोष से जुड़ा रहता है, जिन्हें गुबरनाकुलम कहते हैं। वृषण के अग्र सिरे से भी एक तन्तुओं की पट्टी निकलकर उदरगुहा की पृष्ठ दीवाल से जुड़ी होती है। स्पर्मेटिड धमनियाँ, शिराएँ तथा तन्त्रिकाएँ इसी पट्टी के साथ स्थिति होती हैं, इन सबको एक साथ वृषणु रज्जु (Spermatid cord) कहते हैं। वृषण की गुहा ट्यूनिका एल्बुजिनिया के अन्दर धँस जाने के कारण 15-20 छोटे-छोटे पिण्डों (Tubules) में बँटी रहती है।

(2) अधिवृषण (Epididymis) - वृषण की प्रत्येक शुक्रजनन नलिका से एक-एक पतली नली निकलती है जिसे वास इफेरिन्शिया कहते हैं। सभी वसा इफेरेन्शिया वृषण से बाहर आकर एक जाल बनाती है जिसे वृषण जालक (Rete testis) कहते हैं। इसी वृषण जालक से एक मोटी कुण्डलित नली निकलती है, जिसे अधिवृषण कहते हैं।

(3) शुक्रवाहिका (Vas deferens) - यह लगभग 30 सेमी लम्बी नली है, जो प्रत्येक तरफ से अधिवृषण से शुरू होती है तथा वक्षण नाल से होते हुए उदर गुहा में आती है तथा अपने-अपने तरफ के शुक्राशय में खुलती है। शुक्रवाहिनियाँ शुक्राणुओं को अधिवृषण से शुक्राशय में लाती हैं।

(4) शुक्राशय (Seminal vesicle) - मनुष्य में एक जोड़ी पतली मांसल दीवारों के बने लगभग 44 सेमी लम्बे थैली के समान शुक्राशय प्रोस्टेट ग्रन्थि के ऊपर स्थित होते हैं। इनकी दीवार के आन्तरिक स्तर की कोशिकाएँ एक चिपचिपा पदार्थ स्स्रावित करती हैं, जो शुक्राणुओं का पोषण करता है। इस द्रव में अमीनो अम्ल, शर्कराएँ तथा कुछ विटामिन भी पायी जाती हैं। शुक्राशय द्वारा स्रावित द्रव हो स्खलित वीर्य का अधिकांश भाग बनाता है। दोनों ओर के शुक्राशय मिलकर एक संयुक्त छोटी-सी नली बनाते हैं, जिसे स्खलनीय वाहिनी (Ejaculatory duct) कहते हैं, जो प्रोस्टेट ग्रन्थि से होते हुए मूत्रमार्ग (Urethra) में खुलती है और शुक्राशय से शुक्राणुओं को मूत्रमार्ग में पहुँचा देती है।

(5) मूत्रमार्ग (Urethra) - यह वास्तव में एक पेशीय नलिका है, जो मूत्राशय से मूत्र को बाहर निकालने का कार्य करती है और शिश्न के शीर्ष पर खुलती है, किन्तु मार्ग में इसमें शुक्राशय से स्खलनीय नलिका भी आकर मिलती हैं। इस कारण यह मूत्र त्यागने के अलावा मैथुन के समय वीर्य स्खलन का कार्य भी करती है।

(6) शिश्न (Penis) - यह नर का बाह्य जनन अंग है, जो विशेष प्रकार के स्पन्जी ऊतकों का बना होता है। इसके बीच में यूरेथ्रा स्थित होती है। इसका ऊपरी फूला सिरा शिश्न मुण्ड (Glands penis) कहलाता है और बहुत अधिक संवेदनशील होता है। यह उद्दीप्त होकर प्रतिवर्ती क्रिया के द्वारा मैथुन की इच्छा पैदा करता है।

(7) पुरःस्थ तथा काउपर्स ग्रन्थियाँ (Prostate and Cowper's glands) - जहाँ पर स्खलनीय नलिका यूरेथ्रा में खुलती है वहाँ पर यूरेथ्रा के चारों तरफ एक ग्रन्थि पायी जाती है, जिसे पुरःस्थ ग्रन्थि कहते हैं। इससे अनेक सूक्ष्मनलिकाएँ निकलकर यूरेथ्रा में खुलती हैं और इसके स्राव को यूरेथ्रा में पहुँचा देती हैं। यह ग्रन्थि पतले दूध के समान एक द्रव का स्त्राव करती है, जो वीर्य का 15-30% भाग बनाता है। यह शुक्राणुओं को तैरने के लिए माध्यम देता है। वीर्य की विशिष्ट गन्ध इस द्रव के कारण होती है।

नर जनन अंगों के कार्य (Functions of Male Reproductive Organs)

नर जनन तंत्र का मुख्य कार्य शुक्राणुओं का निर्माण तथा इसे मादा जननांगों में पहुँचाना है। शुक्राणु वृषण में शुक्रजनन द्वारा बनते हैं और निम्न क्रियाओं के माध्यम से मादा की योनि में पहुँचा दिया जाता है -

(i) शिश्न का खड़ा होना (Erection of Penis) - मैथुन की इच्छा होने पर शिश्न की धमनियाँ रुधिर को शिश्न की स्पन्जी ऊतकों में पहुँचा देती हैं, फलत: ऊतक फूल जाता है और शिराएँ दबकर रुधिर प्रवाह को रोक देती हैं, जिससे शिश्न कड़ा हो जाता है उद्दीपन समाप्त होने पर या स्खलन के बाद शिराओं से रुधिर वापस लौट जाता है और शिश्न सामान्य स्थिति में आ जाता है।

(ii) मैथुन (Copulation) - कड़े शिश्न का घर्षण मैथुन कहलाता है, इस समयं यूरेथ्रा की कोशिकाएँ एक द्रव का स्रावण करती हैं, जो शिश्न घर्षण को सरल बनाता है। यह द्रव जल के समान होता है। मैथुन के अन्तिम चरम में स्खलन होता है।

(iii) स्खलन (Ejeculation) - शिश्न से वीर्य निकलने की क्रिया को स्खलन कहते हैं। मैथुन के घर्षण के कारण शिश्न की उत्तेजना बनी रहती है, जिससे वृषण की पेशियाँ संकुचित होकर वृषण, अधिवृषण, शुक्रवाहिनी को देहगुहा के पास ला देती हैं। मैथुन के अन्तिम समय में मेरुरज्जु की उद्दीपन के कारण अधिवृषण, शुक्राशय, पुरःस्थ तथा काउपर्स ग्रन्थियों के दीवार की पेशियाँ संकुचित होती हैं तथा शुक्राणु और इन सभी का स्राव वीर्य के रूप में यूरेथ्रा से होते हुए मादा की योनि में चला जाता है। स्खलन एक प्रतिवर्ती क्रिया है।