कशेरुकियों का वृक्क एवं विकास (Kidney of vertebrates and development)उपापचय के परिणामस्वरूप अन्तिम उत्पादों के रूप में त्याज्य पदार्थों का निर्माण होता है, जिनमें कार्बन- डाइऑक्साइड, अमोनिया, यूरिया, यूरिक ऐसिड, वर्णक, क्रिएटिनीन तथा अकार्बनिक लवण होते हैं। कार्बन- डाइऑक्साइड विभिन्न वर्टीबेट्स में गिल्स अथवा फेफड़ों से निष्कासित की जाती है, परन्तु शेष पदार्थ पानी के घोल के रूप में किडनी द्वारा उत्सर्जित किए जाते हैं। अतः अतिरिक्त पानी भी किडनी द्वारा ही उत्सर्जित किया जाता है। उत्सर्जन तन्त्र तथा जनन तन्त्र रचनात्मक दृष्टि से इतने निकट सहयोग में रहते हैं कि इन्हें आमतौर पर संयुक्त रूप से मूत्रजनन तन्त्र कहा जाता है।कशेरुकी गुर्दा (Vertebrate kidney) - देहगुहा के पृष्ठ तल पर एक जोड़ी सुगठित किडनी पायी जाती है, जो कई मूत्रधर नलिकाओं (Uriniferous tubules) अथवा नेफ्रॉन से मिलकर बनी होती है, ये नलिकाएँ भ्रूण में मीसोडर्म के विशेष भाग से निर्मित होती हैं, जिसे नेफ्रोस्टोम कहा जाता है। यह धड़ में दोनों ओर पूरी लम्बाई में पाया जाता है। प्रारंभिक रूप से मूत्रधर नलिकाओं का निर्माण नेफ्रोस्टोम में क्रमश: अग्र भाग से पीछे की ओर होता चला जाता है, यह खण्ड व्यवस्था के अनुसार होता है, जिसमें एक जोड़ी सूत्रधर नलिकाएँ प्रत्येक खण्ड में बनती हैं। मूत्रधर नलिका में तीन भाग होते हैं, एक सिलियायित पेरिटोनियल कीप जो एक नेफ्रोस्टोम अथवा सीलोम मुख द्वारा स्प्लॅक्नोसील में खुलती है, एक सम्बलित सिलियायित नलिका होती है, जो एक अनुदैर्ध्य एकत्रकारी वाहिनी में खुलती है और एक मैल्पिधी पिण्ड (Malpighian body) अथवा रीनल कॉर्पसल (Renal corpuscle) होती है। मैल्पिघी पिण्ड में दोहरी पिण्ड दीवार वाला एक बोमेन कैप्स्यूल होता है जिसके भीतर अन्तराधमनीय रक्त कोशिकाओं का एक जाल होता है, जिसे ग्लोमेरुलस कहते हैं। इसी ग्लोमेरुलस में रक्त छनता है, एक अभिवाही (Afferent) धमनिका द्वारा रक्त ग्लोमेरुलस में पहुँचता है और एक अपवाही (Efferent) धमनिका उसे वहाँ से बाहर ले जाती है। उसके बाद अपवाही नलिका मूत्रधर नलिका के मार्ग में केशिकाओं में विभक्त हो जाती है, जिससे उनकी खण्डीय व्यवस्था समाप्त हो जाती है और वे योजी ऊतक के एक कैप्स्यूल में बन्द होकर गुर्दे अथवा किडनी का रूप ले लेती है।आद्य नेफ्रॉस (Archinephros) - पूर्वज कशेरुकी में एक जोड़ी गुर्दे सीलोम की पूरी लम्बाई में फैले होते थे, ऐसे हर गुर्दे में खण्डशः व्यवस्थित नलिकाएँ होती थीं, हर खण्ड में एक जोड़ी। हर नलिका एक पेरिटोनियल कीप और नेफ्रोस्टोम द्वारा सीलोम में पृथक् से खुलती थी। हर कीप के पास बोमेन कैप्स्यूल में बन्द एक ग्लोमेरुलस होता था। हर गुर्दे की नलिकाएँ एक वाहिनी में खुलती थीं और यह वाहिनी अवस्कर में जा मिलती थी। ऐसे गुर्दे को आद्यनेफ्रिक कहा गया है और वाहिनी को आद्यनेफ्रॉस वाहिनी कहते हैं। वर्तमान कशेरुकियों में केवल मिक्सिन के लार्वा द्वारा यह प्रदर्शित होता है।आधुनिक कशेरुकियों में मूत्रधर नलिकाएँ आगे से पीछे की ओर दो या तीन अवस्थाओं में क्रमिक रूप में बनती हैं, जिन्हें प्रोनेफ्रॉस, मीजोनेफ्रॉस तथा मेटोनेफ्रॉस कहते हैं। ये अवस्थाएँ मूल आद्य नेफ्रॉस से विकसित हुई हैं। प्रोनेफ्रॉस की उत्पत्ति नेफ्रोस्टोम के सबसे अगले भाग से होती है।हर प्रोनेफ्रॉस में 1 से 13 मूत्रधर नलिकाएँ होती हैं, हर खण्ड में एक-एक जोड़ी। हर नलिका के पास एक ग्लोमेरुलस होता है, लेकिन बोमेन कैप्स्यूल तथा पेरिटोनियल कीप नहीं होते। जब ग्लोमेरुलस बिना बोमेन कैप्स्यूल के सीलोम में निकलते होते हैं, तब उन्हें बाह्य ग्लोमेरुली (External glomeruli) कहा जाता है। हर प्रोनेफ्रांस की मूत्रधर नलिकाएँ एक सम्मिलित प्रोनेफ्रॉस वाहिनी में खुलती हैं जो पिछली भाग में भ्रूण के अवस्कर (Cloaca) में खुलती है। वर्तमान में यह तन्त्र कुछ सायक्लोस्टोमों और सभी एम्नियोटों के भ्रूणों में दिखाई देता है। शेष में यह नष्ट हो जाता है, केवल प्रोनेफ्रिक वाहिनी रह जाती है।मीजोनेफ्रॉस (Mesonehpros) – यह नेफ्रोस्टोम के उस भाग से उत्पन्न होता है जो प्रोनेफ्रॉस के पीछे पड़ा होता है। शुरू में इसमें युग्मित खण्डीय मूत्रधर नलिकाएँ होती हैं हर नलिका में एक पेरिटोनियल कीप होती है। जो सीलोम में खुलती है और बोमोन कैप्स्यूल से घिरा एक ग्लोमेरुलस होता है। हर पार्श्व में ये मीजोनेफ्रिक मूत्रधर नलिकाएँ मौजूद प्रोनेफ्रॉस वाहिनी के साथ जुड़ जाती हैं, जिसे अब मीजोनेफ्रॉस वाहिनी अथवा वॉल्फियन वाहिनी कहते हैं। बाद में मोजोनेफ्रिक नलिकाओं में मुकुलन (Budding) होकर सैकड़ों नलिकाएँ बन जाती हैं, जिससे खण्डीय व्यवस्था समाप्त हो जाती है। नयी बनी मौजोनेफ्रिक नलिकाओं में पेरिटोनियम कौप नहीं पाई जाती। इसके उदाहरण मछलियाँ तथा ऐम्फिबिया के सदस्य होते हैं, जो एनऐम्नियोटों में शामिल किये जाते हैं।मेटानेफ्रॉस (Metanephros) - यह केवल ऐम्नियोटों में भ्रूणीय मीजोनेफ्रॉस के पीछे नेफ्रोस्टोम के पश्चतम् भाग में बनता है। इसका उद्भव दोहरा होता है, एक तो अवस्कर के पास मोजोनेफ्रिक वाहिनी से नलिकाकार बहिवृद्धि निकलती है और वह नेफ्रोस्टोम में बढ़ती जाती है, जहाँ वह शाखाओं में विभाजित हो जाती है। इन नलिकाओं से एकत्रकारी नलिकाएँ एवं कैलिक्स बनते हैं और नलिकाकार बहिवृद्धि का समीपस्थ भाग मूत्रवाहिनी (Ureter) अथवा नेफ्रोस्टोम से हजारों मूत्रधर नलिकाएँ बन जाती हैं और कोई खण्डीय व्यवस्था नहीं होती। नलिकाएँ लम्बी और अत्यधिक कुण्डलित हो जाती हैं, इनमें ग्लोमेरुलस बोमेन कैप्स्यूलों के भीतर बन्द होते हैं, परन्तु उनके पेरिटोनियल की नहीं होतीं सीलोम से इनके सभी सम्पर्क टूट जाते हैं, इनके उदाहरण वयस्क ऐम्नियोट (सरीसृप, पक्षी तथा स्तनधारी) होते हैं।