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परासरण नियम पर टिप्पणी - Comment on the law of Osmosis in Hindi

परासरण नियम की कार्यिकी (Physiology of Osmoregulation)

"जल ही जीवन है जल है तो कल है"। सभी जीवित प्राणी अपने शरीर में जल तथा लवणों की निश्चित मात्रा बनाये रखते हैं, इसे होमियोस्टेसिस कहते हैं। इस तरह का नियमन, परासरण नियमन कहलाता है।आइसोटॉनिक, हाइपोटॉनिक तथा हाइपरटॉनिक प्राणी-वे जन्तु जिनके शरीर द्रवों का सान्द्रण उनके बाह्य माध्यम से मेल खाता हो, आइसोटॉनिक जन्तु कहलाते हैं। इनमें परासरण नियमन की समस्या नहीं होती। सामान्यतया ये समुद्री जीव होते हैं।वे जीव जो ऐसे माध्यम में रहते हैं, जिनका सान्द्रण उनके जीवद्रव्य से कम है, ऐसे जीवों को हाइड्रेशन का खतरा रहता है अर्थात् बाह्य वातावरण से लगातार पानी उनके शरीर में परासरण के कारण प्रवेश करता रहता है। इन जीवों को हाइपोटोनिक जीव कहते हैं, ऐसे जीवों में जल को लगातार निष्कासित करते रहने के लिए तंत्र विकसित हो जाते हैं। इनके उदाहरण स्वच्छ जल के प्रोटोजोआ, क्रस्टेशियन आदि हैं, जो कुंचनशील रिक्तिकाओं तथा उत्सर्जी अंगों से लगातार जल बाहर निकालते रहते हैं। इसी तरह वे जीव जो ऐसे माध्यम में रहते हैं, जिनका सान्द्रण उनके जीवद्रव्य से अधिक है, उनको डीहाइड्रेशन का खतरा बना रहता है, अर्थात् परासरण के कारण उनके शरीर से लगातार पानी विसरित होता रहता है, अतः उनको लगातार पानी पीते रहना पड़ता है, ऐसे जीवों को हाइपरटोनिक जीव कहा जाता है। इनके उदाहरण समुद्र में पायी जाने वाली टिलियोस्ट मछलियाँ होती हैं।परासरण नियमन तंत्र के तहत होने वाली क्रियाओं को समझने के लिये हमें पदार्थों का विलयन में स्वभाव क्या होगा, इसका ज्ञान होना चाहिये। जब एक मन्द तथा तीव्र सान्द्रण वाला विलयन एक अर्धपारगम्य झिल्ली से पृथक किया गया हो, तब विलायक (Solvent) का प्रवाह मन्द से तीव्र विलनय की तरफ होगा, इसे ही परासरण कहते हैं। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहेगी, जब तक द्रव के प्रवाह के कारण हाइड्रोस्टेटिक दाब इतना हो जाये कि अब आगे प्रवाह स्वतः रुक जाये। यह अतिरिक्त दाब जो झिल्ली से प्रवाह को रोक सके, परासरण दाब कहलाता है, जो तीव्र विलयन का होगा। यह दाब विलयन के सान्द्रण के अनुपात में होगा अर्थात् ज्यादा सान्द्रण की स्थिति में ज्यादा दाब होगा। इस प्रकार परासरण दाब का मान या परासरण सान्द्रण एक निश्चित आयतन में बुले पदार्थ के कणों की संख्या के अनुसार होगा न कि उनके आकार या स्वभाव से यदि कई पदार्थ एक ही विलयन में उपस्थित हों तो परासरण सान्द्रण उन सभी के योग के अनुरूप होगा।एक विलयन को आइसो ऑस्मोटिक तब कहा जायेगा, जब वह दूसरे विलनय के बराबर परासरण सान्द्रण में होगा। इसी तरह हाइपो ऑस्टमोटिक विलयन दूसरे से कम सान्द्रण वाला होगा, जबकि हाइपर ऑस्टोमिक दूसरे विलयन से अधिक सान्द्रण वाला होगा।यूरीहेलाइन तथा स्टेनोहेलाइन जीव - सामान्यतया वे जीव जो अपने शरीर में द्रवों के लवण सान्द्रण को अपने आस-पास के वातावरण के अनुसार बदल नहीं सकते, वे पाइकिलो ऑस्मोटिक जीव कहलाते हैं। इनमें वे जीव जो अपने वातावरण में लवण सान्द्रण में होने वाले अधिक बदलाव को सहन कर पाते हैं, वे यूरीहेलाइन कहलाते हैं तथा वे जीव जो इन उतार-चढ़ावों को सहन नहीं कर पाते और नष्ट हो जाते हैं, स्टेनोहेलाइन जीव कहलाते हैं।

स्वच्छ जल के प्राणियों में परासरण नियमन (Osmoregulation in fresh water animals)

स्वच्छ जल में पाये जाने वाले सभी जीव, मछलियाँ आदि अपने आस-पास के जल के मुकाबले हाइपरटोनिक होते हैं। इनके शरीर, चूँकि पूरी तरह से अपारगम्य नहीं होते, अतः इनके शरीर में सतत् जल प्रवेश करता रहता है, जबकि कुछ मात्रा में लवणों का ह्रास भी होता रहता है। इस अतिरिक्त जल की मात्रा को मूत्र के रूप में निष्कासित किया जाता है मूत्र का सान्द्रण अत्यन्त कम रखा जाता है, वृक्कों से लवणों का ह्रास कम से कम रखा जाता है। लवणों की कमी पूर्ति बाह्य जल से सक्रिय अवशोषण तथा भोजन आदि में से की जाती है।

समुद्री प्राणियों में परासरण नियमन (Osmoregulation in marine animals)

अस्थिल या टिलियोस्ट मछलियों में जीवद्रव्य का सान्द्रण कम होने से बाह्य समुद्री जल हाइपर ऑस्मोटिक रहता है। मछली के शरीर में द्रवों के मुकाबले समुद्री जल तीन गुना अधिक खारा रहता है, चूंकि इनके शरीर भी कुछ पारगम्य रहते हैं, अतः पानी कम सान्द्रण से अर्थात् मछली के शरीर से समुद्र में विसरित होता रहता है, इसलिये इनको डीहाइड्रेशन का खतरा रहता है और ये लगातार पानी पीकर तथा आहार नाल से लवण तथा जल को अवशोषित कर इनकी कमी पूरी करते रहते हैं। मछली के वृक्क अधिक सान्द्रण वाला मूत्र निर्मित नहीं कर सकते, जिससे कि अधिक लवण निष्कासित किया जा सके। अतः अतिरिक्त लवणों को गिल्स के द्वारा उत्सर्जित किया जाता है। चूँकि यह उत्सर्जन रक्त के कम सान्द्रण वाले क्षेत्र से समुद्र के अधिक सान्द्रण वाले क्षेत्र की तरफ है, अतः इस कार्य में ऊर्जा खर्च कर सक्रिय परिवहन की क्रिया होती है।कार्टिलेजीनस या इलैस्मोबँक मछलियाँ अपने वृक्कों की सहायता से इस समस्या का निदान कर पाती हैं, उनके रक्त में काफी मात्रा में यूरिया तथा ट्राइमिथाइलीन घुला रहता है, इस तरह वे अपना ऑस्मोटिक सान्द्रण समुद्री जल जैसा बनाये रखती हैं। अतः वृक्कों में विशेष तन्त्र होता है, जो यूरिया को तेजी से पुनः रक्त में पम्प करता है। इस प्रकार कई बार मछली का जीवद्रव्य सान्द्रण, जब समुद्री जल की अपेक्षा और अधिक खारा हो जाता है, तब समुद्री जल शरीर में प्रवेश करता है, इस अतिरिक्त जल को मूत्र की सहायता से निष्कासित किया जाता है। विसरण के कारण प्रवेश करने वाले लवणों को गिल्स में मौजूद रेक्टल ग्रन्थियों की मदद से निष्कासित किया जाता है।

स्थलीय प्राणियों में परासरण नियमन (Osmoregulation in terrestrial amimals)

सभी स्थलीय प्राणियों के शरीर में सामान्यतया वातावरण के अनुसार पानी का निष्कासन होता रहता है, इस प्रकार जल की हानि होने से उनको डीहाइड्रेशन का खतरा रहता है। यहाँ वे ही जीव अपना अस्तित्व बनाये रख सकते हैं, जो इस कमी को अविलम्ब पूरा कर सकें, इस तरह वे पानी को पीकर या भोजन में मौजूद पानी से या शरीर में भोज्य पदार्थों के ऑक्सीकरण के दौरान उत्पन्न जल से इस कमी को पूरा करते हैं, जबकि पानी का नुकसान फेफड़ों के स्थान से वाष्पोत्सर्जन, त्वचा से वाष्पोत्सर्जन, मूत्र के निर्माण तथा मल आदि से होता है।इस तरह से होने वाली हानि को सरीसृप तथा पक्षी अपने त्वचा की श्रृंगीकाय (Scales), एवं पिच्छ (Feather) तथा स्तनी, अपने बालों की मदद से रोकते हैं। इनके वृक्क अधिक सान्द्रण वाले मूत्र का निर्माण करते हैं। स्तनियों में मूत्र के आयतन के निर्धारण का नियन्त्रण एक हॉर्मोन ऐण्टिडाइयूरेटिक हॉर्मोन से होता है। यह वृक्क की मूत्रधर नलिकाओं द्वारा की जा रही जल अवशोषण की क्रिया को प्रभावित कर तेज कर देते हैं। यह पीयूष ग्रन्थि के पिछले लोब से स्रावित होने वाला हॉर्मोन है, इसे वेसोप्रेसीन भी कहा जाता है। इसकी शरीर मैं कमी होने पर अत्यधिक मूत्र का निर्माण होता है।